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________________ तृतीय खण्ड ८१ अनुवाद कर सके फिर भी विषय करणानुयोगका अत्यन्त जटिल है गणित विषयक अनेक उलझनें है पर पं० जी उन्हें सुलझा सके। पर पठन-पाठन न हो सका । । वर्तमान शती में स्वनामधन्य पं० गोपालदास जी वरैया हुए जिनके समय में करणानुयोग दर्शनमात्रकी वस्तु थी । माना प्रथमानुयोग और चरणानुयोगका स्वाध्याय करने वाले विरले विद्वान् थे । मूल मात्र तत्वार्थसूत्रका वाचन कर देने वाला ही बड़ा विद्वान् माना जाता था । उस युग में बिना किसीकी सहायताके गुरु गोपालदास जीने इन महान् ग्रंथोंका केवल स्वाध्याय ही नहीं किया, सैकड़ों शिष्योंको अध्यापन कराया । यह इतिहास प्रसिद्ध है कि आचार्य नेमिचंद्र चक्रवर्ती जिनके समयको १२०० वर्ष हो गया वे इन पट्खण्डागमका स्वाध्याय कर रहे थे। इतनेमें उनके शिष्य श्री चामुण्डराय जी उस समय आए और बन्दनाकर बैठ गए । आचार्य श्रीने ग्रन्थ वाचन बंद कर दिया तब श्री चामुण्डराय जीने पूछा तो आचार्य बोले, ये महान् ग्रन्थ हैं तुम इनके श्रवणमननके योग्य नहीं हो। श्री चामुण्डराय जीने पुनः अभ्यर्थना की कि फिर हम जैसे श्रावक इन ग्रंथोंके रहस्यको कैसे समझ पाएँगे तो उन्होंने उनके इस निमित्तको लेकर गोम्मटसारादि ग्रन्थोंकी रचना की । स्व० पं० टोडरमल जी भी इन ग्रन्थोंको देखना चाहते थे और उनकी हिन्दी टीका लिखनेका विचार रखते थे पर कालब्धि नहीं आई थी वे अपने अल्पसे जीवनकालमें न दर्शन कर पाए न स्वाध्याय ही । जो कार्य पं० टोडरमल जीने अपनी प्रज्ञाके बलपर करणानुयोगके ग्रन्थोंके अनुवादको लिखा उसी प्रकार यद्यपि पं० फूलचंद्रजी गुरु गोपालदास जीके शिष्य पं० वंशीधर जी तथा पं० देवकीनन्दन जी द्वारा गोम्मटसारादि ग्रन्थोंका अध्ययन कर चुके थे। तथापि हस्तलिखित प्रति जो प्राकृत भाषामें निबद्ध थी उसे शुद्ध करना फिर अनुवाद करना, फिर ग्रन्थान्तरोंसे उसका सामञ्जस्य मिलाना और इसने विशाल ग्रन्थको पूरा कर प्रकाशित करनेका कार्य इस युगका महान् कार्य सुमेरु यात्रा जैसा था। पं० फूलचन्द्र जी अपनी जन्मान्तर की प्रज्ञाके संस्कारसे तथा वर्तमान आगमकी अटूट श्रद्धाके कारण इसे लिख सके अतः हम इन्हें इस युग के पं० टोडरमल जी ही मानते हैं । इस दुबले पतले लम्बे छरहरे बदनके व्यक्तिमें कितना गाम्भीर्य है, कितनी धर्म बद्धा है, कितनी दृढ़ता है, कितना अध्यवसाय है, कितना धर्म सेवा व समाज सेवाकी लगन है वह उनके जीवनके कार्य कलापों तथा पवित्र जीवनसे दर्पण की तरह स्पष्ट है । मैं उनके प्रति सद्भावनायें प्रकट कर सकता हूँ । अतः इस अवसर में उनका सहस्रशः अभिनन्दन करता है । जैन भारतीके ओजस्वी सपूत • डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ सिलावन जैसे एक छोटेसे ग्राम में एक साधारण स्थितिके परिवारमें जन्में पण्डितजीका बाल्य एवं कुमारकाल प्रायः विपन्नावस्थामें ही व्यतीत हुआ। उन्हें वे सुख-सुविधाएँ एवं साधन प्राप्त नहीं हुए जो बाकी पीढ़ियोंके बहुभाग युवकों को प्राप्त हुए । समाजकी धार्मिक शिक्षा संस्थाओं में शास्त्री उपाधि पर्यन्त शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने शीघ्र ही वैसी ही संस्थाओं में अल्पवेतन पर अध्यापन कार्य करके जीवन निर्वाह प्रारंभ किया । गार्हस्थ्यके दायित्व भी ऊपर आ गये । बड़ा संघर्षमय जीवन रहा । किन्तु यदि आर्थिक दृष्टि से अल्पसन्तोषी रहना एक विवशता अथवा संस्कारजन्य गुण था, तो ज्ञानार्जनकी पिपासा उत्कट थी । ज्ञानका ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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