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________________ द्वितीय खण्ड : ६९ ने. : इस तरहसे आप जैन साहित्य सृजनमें या टीकामें या जो भी हो, उसमें आप आये । फू.: हाँ। फिर तो काम करते रहे। फिर वहाँ काम किया । चूँकि हमारे साथी जो हैं डॉ० होरालालजी उग्र प्रकृतिके थे थोड़े । ने. : आपको प्रेरणा इसमें मिली पण्डित देवकीनन्दनजी से । फू. : पण्डित देवकीनन्दनजीसे प्रेरणा क्या मिली ? वैसे तो हम पत्रिका निकालते ही थे - अंतःप्रेरणासे निकालते थे । अन्तमें उनका सहयोग मिल गया । अंतःप्रेरणा यही मिली कि हमको यह काम करना चाहिए । इस काम में हम आ गये । यहाँ आ जानेके बादमें ४-५ वर्ष तो हम आजीविका में रहे । ३ वर्ष तो वहीं रहे, फिर उनका थोड़ा स्वरूप देख करके डॉ० हीरालालजीके साथ हमारे विवाद हो जाया करते थे कभी -कभी । फिर हमारे पहला बच्चा हुआ, तो उसका स्वर्गवास हुआ तो हम घर आये थे, उसके बाद हम गये ही नहीं । ने. : आपके मौलिक ग्रंथ कितने होंगे ? फू. : मौलिक तो वैसे तो देखिए, एक तो हमने 'जैनतत्त्वमीमांसा' लिखी और एक 'वर्ण, जाति और धर्म' पुस्तक लिखी । एक तस्वार्थसूत्र की टीका की । .: मौलिक ग्रंथोंमें आपने कौन-कौन सी मौलिकताएँ सामने रखीं ? फू. : व्यक्ति - स्वातन्त्र्य - स्वावलम्बनको ध्यानमें रखकर हमने लिखा और 'वर्ण जाति और धर्म' में सामाजिक व्यवस्थाको आगमसे, सामाजिक व्यवस्थाके विरोध में हमको क्या मिलता है, यह दृष्टि हमारी मुख्य रही । ने. : विरोधमें रही है ? फू. : विरोधमें मतलब यह है कि समाजका वर्तमानमें जो ढाँचा है जातिवादका उसके हम विरुद्ध हैं । हम संगठन तो चाहते हैं, परन्तु समाज गुटोंमें जो बँटी है, वह विषमता नहीं चाहते हैं । जैसे जैनधर्मके आधार पर दिगम्बर जैन धर्मके आधार पर, एक संगठन होना चाहिए, ऐसा हमारा मत है । . : क्योंकि विषमताओंसे शोषण होता है । फू. : शोषण भी होता है और योग्य भी हो, तो हम कहते हैं अयोग्य है:- अगर हमारी जातिका नहीं है तो ने. : अच्छा, तो जातिका होना जरूरी है । फू. : जातिका होना जरूरी नहीं, फिर भी मानते हैं कि जातिका होना चाहिए । हाँ, संस्कार वाला वो होना चाहिए । जिस संस्कारमें वह पला-पुसा है और जैसा हमको काम लेना है उसके अनुकूल तो होना चाहिए | परन्तु जाति उसमें बाधक बनती हैं, तो यह हमको स्वीकार्य नहीं । हम तो कहते हैं कि हरिजनको भी पात्र यदि हम बना लेते हैं तो वह हमारे धर्मको धारण करनेका पूरा अधिकारी है, फिर हम तो यह मानते हैं । ने. : व्यक्ति स्वातंत्र्यको मानते हैं । फू.: हाँ । ने. : इसमें जाति कहाँ आड़े आती है । फू.: हमारे यहाँ तो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त होना चाहिए, यह आगमकी आज्ञा है । ने. : अच्छा, पर्याप्त यानी क्या ? : संज्ञी पंचेन्द्रिय ताकि जो समझदारी आ जाए, विवेक आ जाए, तो हमारी बात सुने, तो विवेक से ग्रहण कर ले । सत्-असत् हेय उपादेयको जाने । फू. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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