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________________ ६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ने. : अच्छा यह बताइये सामाजिक क्रांतिमें आपकी कोई रुचि है। फ. : सामाजिक क्रांतिमें गजरथ विरोधी आन्दोलन भी हमने किया । ने. : अच्छा-अच्छा, कौन-सा सन् था यह ? फ. : यह सन् ३८ से। यह जो चला था ये देवगढ़ उसका आन्दोलन करनेवाले तो सब हम ही मुख्य। ने. : क्यों किया आपने विरोध ? फू.: इसलिए कि यह समयके अनुकूल नहीं है और हर जगह लोग जो हैं पैसा होता है तो शिक्षासंस्थाओंमें और स्वाध्याय आदिमें नहीं लगाते हैं और इनका खर्च करते और अपना भी खर्च करते हैं और समाजका भी खर्च करते हैं और कुछ लाभ तो मिलता नहीं है सिर्फ सवाई सेठ बन जाते है, इसलिए आन्दोलन किया था और एक दफे हमने उपवास भी किया इसके लिए केवलारी में । ने.: क्या प्रभाव पड़ा? फू. : केवलारोमें समझौता किया हमसे, फिर वह तोड़ दिया। मानते ही नहीं, अब तो व्यापार हो गया प्रा । आन्दोलन जो है वह व्यापार हो गया । अब तो व्यापारके लिए करते हैं लोग पंचकल्याणक । भेंट-वार्ता : २ ६५ मेरे लेखन का आधार आगम है इन्दौर, ३१ जनवरी, १९८५ डा० नेमोचन्द्र जैन : जिन्दगी जैसे अंजलिका जल होता है और सन्दियोंमेंसे निकल जाता है, वैसे ही समय भी बराबर तेजीसे चला जा रहा है । लेकिन आपने यह समयको रोकनेका प्रयत्न किया है -साहित्य के माध्यम से। साहित्यके माध्यमसे समयको भी थामा जा सकता है, रोका जा सकता है, वह प्रयत्न आपने किया है । जैन साहित्यके क्षेत्रमें आपका आना कब हुआ । पण्डित फूलचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्यके क्षेत्रमें तो वैसे अखबार निकालनेकी दृष्टिसे कहते हो तो सन् ३६ में हम आ गये । 'शान्तसिन्धु' पत्रिका में । ने.: 'धवला' का सम्पादन चल रहा था ? फ.: सन १९३७-३८ में धवलाका सम्पादन काम चल रहा था अमरावतीमें। डा० हीरालालजी उस कामको कर रहे थे। उन्होंने अनुवाद तैयार कर लिया था। परन्तु कमेटी और विचार करनेके लिए उनसे कह रही थी। क्योंकि डा० हीरालालजीने एक लेख लिखा था । लेखके ऊपर बहत टीका टिप्पणी हई थी। इसलिए कमेटी थोड़ी सावधान थी कि ऐसा न हो कि यह ग्रंथ भी निकले और उस पर टीका-टिप्पणी चले, तो फजीहत होगी। इसलिए हमको बुलाया गया धवलाके प्रथम भागके पुनर्लेखनके लिए, मैंने उसको लिखा । जहाँ थोडा बहत संशोधन करना था, संशोधन किया, जहाँ उसको मानना था उसीको ले लिया। इस हमने तैयार किया और एक युक्ति निकाली कि भाई, यह छपेगा कैसे ? हमने कहा कि हमारे गुरुजी हैं पण्डित देवकीनन्दनजी, कारंजा। कारंजा अमरावतीके पासमें है । आप कहें तो हम उनको दिखाकर ले आया करें । कमेटीने स्वीकृति दे दी। हम हर हफ्ते या पन्द्रह दिनमें कारंजा जाने लगे और पढ़ करके सुनाते थे । वे सुनते थे कहीं उन्होंने कोई एक आध बात बताई तो नोट कर लेते थे, ताकि और अन्तिम रूप हो गया और अन्तिम रूप हो जानेसे कमेटीने मंजूरी दे दी कि छापो । तो उसमें जो अड़चन थी, वह निकल गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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