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________________ समग्र भारतीय चित्र शैलियों में जितने भी प्राचीन विभिन्न प्राचीन जैन ग्रन्थों में जैन चित्रकला के चित्र प्राप्त हैं उनमें मुख्यता और प्राचीनता जैन चित्रों विविध पक्षों का वर्णन प्राप्त होता है। कल्पसूत्र आदि की है । ये चित्र दिगम्बर जैनियों से सम्बन्धित हैं जिन्हें में भगवान महावीर का चित्रमय वर्णन मिलता अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों को चित्रित करने व कराने है। "प्रश्न व्याकरण सूत्र" (2/5/16) में चित्रों की का बड़ा शौक था। प्राकृत भाषा में रचित जैन ग्रन्थों अनेक श्रेणियों का उल्लेख है। इस व्याकरण ग्रन्थ में का अध्ययन करने से तत्कालीन समाज में विद्वानों चित्रों की तीन प्रमुख श्रेणियों सचित्त (मानव, पशु, साहित्यकारों एवं जन-सामान्य में चित्रकला के प्रति पक्षी), अचित्त (नदी, नद, पहाड़, आकाश) और मिश्र अनुराग तथा निष्ठा का बोध होता है। दसवीं शती से (संयुक्ता) में वर्गीकृत किया गया है। लकड़ी, कपड़े और पन्द्रहवीं शती के मध्यकाल में भारतीय चित्रकला की पत्थर पर अनेक रंगों के योग से उरेहे गए चित्रों को परम्परा में जैन व बौद्ध कला का बाहुल्य है। इससे "लेपकम्प" कहा है। लोककला के उन्नत स्वरूप के रूप पूर्व के काल में जैन कला का समृद्ध रूप मूर्तियों तथा में इस काल में अल्पना चित्रों का भी अंकन किया मन्दिरों के शिल्प में परिलक्षित होता है। इस काल जाता था। साथ ही मिट्री-पत्थर व हाथीदांत पर भी में इसका स्वरूप निखर आया था। चित्रकला के जो चित्र उरेहे जाते थे । एक कथाकृति "नाया-धम्म नमूने आज उपलब्ध हैं उनमें अधिकतर जैन साहित्य की कहाओ" (1/16/77-80) से विदित होता है कि चम्वा विभिन्न कृतियों के मध्य विभिन्न सन्दों में चित्रांकित हैं। नामक नगरी में ललित गोष्टी (ललियाएणामं गोठठी) नाम की एक प्रमोद सभा विद्यमान थी। इस ग्रन्थ में जैन कला में जहाँ मूर्तिकला और शिल्प एवम लिखा है (1/1/17) कि महाराज श्रोणिक के महल में स्थापत्य के क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा का बाहल्य है. दीवारों पर बड़े अच्छे चित्र उरेहे हुए थे। इसी ग्रन्थ में वहाँ चित्रकला के क्षेत्र में श्वेताम्बरीय जनों का महत्व- इस प्रकार के अन्य अनेक उदाहरणों का भी उल्लेख है। पूर्ण योग रहा है। जैन का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस कला की अनेक जैन साहित्यिक रचनाओं में जैन चित्रकला गुजरात की श्वेताम्बर कलम से पूर्ण भी चित्रकला सम्बन्धी उल्लेख हैं। श्री गेरोला के विकास की ओर अग्रसर होकर वर्षों तक राजपताने में अनुसार "11वीं-12वीं शताब्दी में रचित जैन साहित्य अपना विकास कराती रही और बाद में ईरानी प्रभावों की कथा कृतियों में चित्रकला के सम्बन्ध में बड़ी ही से मुक्त होकर "राजपूत कलम" में ही विलयित हो उपयोगी चर्चाएं देखने को मिलती हैं। मागधी प्राकृत गई। 12वीं सदी के पूर्व जहाँ मुगल शैली की विका- की कथा कृति "सुर सुन्दरी कहा" (रचनाकाल 1338 सावस्था में जैन चित्रकला की प्रगति शिथिल पड़ गई ई.) में श्लेषोक्ति के द्वारा किसी नायक की एकान्त वहाँ 12 वीं सदी के बाद महमूद गजनवी के विध्वंशों प्रेमासक्ति को भ्रमर और कुमुदनी का चित्र बनाकर के बावजूद भी जैन चित्रकला आबू और गिरनार के व्यक्त किया गया है। प्राकृत भाषा की दूसरी कथाकृति केन्द्रों में अपने परिवेश में नव निर्माण की ओर अग्रसर "तरंगवती" (सम्भवतः आंध्रभृत्य राजाओं के आश्रय में हुई। बाद में जैन चित्रकारों ने राजपूत और मुगल निर्मित) में नायिका तरंगवती द्वारा एक चित्र प्रदर्शनी का शैलियों से प्रेरणा ग्रहण कर अपने क्षेत्र को और भी आयोजन इस उद्देश्य से किये जाने का उल्लेख है कि कदाव्यापक बनाया। चित इस लोभ से उसका रूठा हआ प्रेमी वहां आ जाय। 2. भारतीय चित्रकला-वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ 93 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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