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________________ "आचारांग सूत्र " ( 2/2/3/13) में जैन साधुओं और ब्रह्मचारियों को चित्र शालाओं में जाने और ठहरने से वर्जित किया गया है । जैनाचार्य हेमचन्द्र ( 10821172 ई.) के महाकाव्य " त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित" में तत्कालीन राज दरबारों में अनेक चित्रकारों की सभा होने का वर्णन है, जो भित्तिचित्रों से सुसज्जित हुआ करती थी । प्रभावक चरित्र के " वप्पभट्ट सूरि चरित्र" (सम्वत 1334) में नवीं शताब्दी में भगवान महावीर के चित्रपटों के बनाने का उल्लेख है । " वप्पभट्टि सूरी जी को चित्रकार ने महावीर की मूर्ति वाले चार चित्रपट्ट तैयार करके दिये । सूर जी ने उनकी प्रतिष्ठा करके एक कन्नौज के जैन मन्दिर में, एक मथुरा में, एक अणहिल्ल पाटण में, एक सत्तारकपुर में भेज दिये गये जिनमें से पाटणवाला पट्ट मुसलमानों ने पाटण को नष्ट किया तब तक वहाँ के मोढ़गच्छ के जैन चैत्य में विद्यमान था । नवीं शताब्दी में महावीर के चार चित्रपट्ट बनाये जाने का उल्लेख बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । परन्तु खेद है कि आज उनमें से एक भी प्राप्त नहीं है । हरिभद्र सूरि ने आवश्यक वृत्ति में समवशरण चित्रपट्ट का उल्लेख किया है।" बारहवीं से सोलहवीं शती के मध्य श्वेताम्बरी जैनों द्वारा अपभ्रंश शैली के अनेक ताडपत्रीय ग्रन्थ चित्रों की रचना की गई। इनमें से कुछ, यदा-"निशीथ चूर्णी" "अंग सूत्र", "दशवैकालिक लघुवृत्ति", "ओध नियुक्ति", "त्रिषष्टि शालाका पुरुष चरित", "नेमिनाथ चरित", " कथा सरित्सागर " " संग्रहणीय सूत्र", "उत्तराध्ययन सूत्र", "कल्प सूत्र" और " श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णी" आज भी पोथियां, पाटन, खंभात, Master और जैसलमेर आदि के ग्रन्थकारों तथा अमरीका के बोस्टन संग्रहालय में सुरक्षित हैं । इस काल के चित्रों की शैली के सम्बन्ध में कला मर्मज्ञों के विभिन्न मत हैं । प्रारम्भ में तो इसे "जैन शैली के नाम से ही सम्बोधित किया जाता था परन्तु बाद में इस आधार पर कि इस शैली के चित्र जैनेतर और वैष्णव ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं, रायकृष्णदास ने इसे अपभ्रंश शैली के नाम से सम्बोधित किया है। जौनपुर इस शैली का प्रमुख केन्द्र माना जाता है । अहमदाबाद के श्री साराभाई माणिक लाल ने अपभ्रंश शैली से सैकड़ों सादे और रंगीन चित्रों से युक्त एक महत्त्वपूर्ण जिसका लिपि काल 1465 ई. (1522 वि.) है; इस ग्रन्थ "चित्र कल्पद्र ुम" ( कल्पसूत्र) प्रकाशित किया है शैली के कागद पर निर्मित ग्रन्थ चित्र और स्फुट चित्र बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं । इनमें से एक रायल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई में और दूसरी लीभणी के सेठ आनंद जी कल्याण जी के पास बताई जाती हैं । इनका लिपिकाल 1415 ई. है | जौनपुर की "कल्पसूत्र” इसकी तीसरी प्रति है जो स्वर्णाक्षरों में अंकित है और संप्रति बड़ौदा के नरसिंह जी पोल के ज्ञान मन्दिर में सुरक्षित है। यह प्रति 147 ई. में जौनपुर के बादशाह हुसैन शाह शर्की के समय चित्रित की गई थी । कल्पसूत्र की एक चौथी प्रति अहमदाबाद निवासी मुनि दया विजय जी के संग्रह में है, जिसको 15 वीं शती के उत्तरार्द्ध का माना जाता है । यह भी स्वर्णाक्षरों में अंकित है, इसमें अंकित चित्र अपभ्रंश शैली के सर्वश्रेष्ठ चित्र माने जाते हैं । Jain Education International किसी भी कला या उसकी किसी शैली की रूप-' रेखा का परिचय प्राप्त करने के लिये उसके प्रमुख प्रतीकों का अध्ययन नितान्त आवश्यक है । इस दृष्टि से जैन कला में जो प्रमुख प्रतीक हमें प्राप्त होते हैं उनमें तीर्थंकर महावीर की माता त्रिशला को हुए स्वप्नों के चित्र बहुतायात में प्राप्त होते हैं । उनमें एरावत हाथी, 3. भगवान महावीर चित्रावली - अगरचन्द्र नाहटा, वीर परिनिर्वाण सितम्बर 1974, पृष्ठ 11 १६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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