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________________ प्रिंस ऑफ वेल्सम्यूजियम बम्बई में जैन तीर्थ कर कुषाण युग के अनेक कलात्मक उदाहरण मथूरा पार्श्वनाथ की प्राचीन कांस्य प्रतिमा संग्रहीत है । यह के कंकाली टीले की खुदाई से उपलब्ध हुए हैं। यहाँ कायोत्सर्गासन में है, उनका सर्पफणों का वितान एवं से प्राप्त एक आयागपट्ट जिस पर महास्वस्तिक का दक्षिण कर खंडित है । ओष्ठ लंबे एवं हृदय पर चिन्ह बना है, के मध्य में छत्र के नीचेपद्मासन में श्रीवत्स चिन्हांकित नहीं है. जो परवर्तीकाल में प्राप्त तीर्थकर मूर्ति है, उनके चारों ओर स्वस्तिक की चार होता है। श्री यू.पी. शाह ने प्रतिमा का काल 100 ई. भुजाएं हैं। तीर्थ कर के मण्डल की चार दिशाओं में पू. के लगभग सिद्ध किया है । चार त्रिरत्न दिखाये गये हैं। कलात्मक दृष्टि से लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित आयागपट्ट' (क्रमांक जे. ___ शं गकालीन कंकाली टोला (मथुरा) से जैन स्तूप 249) महत्वपूर्ण है । इसकी स्थापना सिंहनादिक ने के अवशेष प्राप्त हुए हैं इसके साथ ही उसी काल के अर्हत् पूजा के लिए की थी । मध्य में पद्मासन पर पूजा पट्ट भी उपलब्ध हुए है जिन्हें आयाग पट्ट भी बैठी हुई तीर्थक र मूर्ति है । पट्ट की बाह्य चौखट पर कहा जाता था । यह प्रस्तर अलंकृत हैं तथा आठ आठ मंगलिक चिन्ह हैं। मांगलिक चिन्हों से युक्त है। पूजा निमित्त अमोहिनी ने इसे प्रदान किया था । इस युग का एक प्रधान केन्द्र आयागपट्ट पर जो मांगलिक चिन्ह हैं उनकी उड़ीसा में था। यहाँ की उदयगिरि पहाड़ियों पर जैन स्थिति से मूर्ति को जन प्रतिमा मानने में संदेह नहीं धर्म से सम्बन्धित गृहायें उत्कीर्ण हैं। रह जाता ये चिन्ह हैं =स्वास्तिक, दर्पण, भस्मपात्र, शुंग एवं कुषाण युग में मथुरा जैन धर्म का प्राचीन वेंत की तिपाई (भद्रासन), दो मछलियाँ, पुष्पमाला केन्द्र था । यहाँ के कंकाली टीले के उत्खनन से बह- एवं पुस्तक । कुषाण युग के अन्य आयागपट ट पर जो संख्यक मूर्तियाँ प्राप्त हई हैं। ये मूतियाँ किसी समय मांगलिक खुदे हैं उनमें दर्पण तथा नंधावर्त का अभाव मथुरा के दो स्तूपों में लगी हई थीं । अहंत नंधावर्त है। संभवतः कनिष्क के काल (प्रथम सदी ई.) तक की एक प्रतिमा जिसका काल 89 ई. है, इस स्तूप के अष्टमांगलिक चिन्हों की अंतिम सूची निश्चित न हो उत्खनन से प्राप्त हुई है। सकी थी। यहाँ से उपलब्ध जैन मूर्तियां, बोट मूर्तियों से विवेच्य युग में प्रधानतः तीर्थ कर की प्रतिमाएं इतना सहश्य रखती हैं कि दोनों का विभेद करना तैयार की गई जो कायोत्सर्ग एवं आसन अवस्था में कठिन हो जाता है। यदि श्रीवत्स पर ध्यान न दिया हैं। मथुरा के शिल्पयों के सम्मुख यक्ष की प्रतिमायें ही जाय तो ऊपरी अंगों की समानता के कारण जैन को आदर्श थीं, अतः कायोत्सर्ग स्थिति में तीथं कर की बौद्ध एवं बौद्ध को जैन मूर्ति कहने में कोई आपत्ति नहीं विशालकाय नग्न मूर्तियाँ बनने लगीं। कंकाली टीले के होगी । कारण यह था कि कुषाण युग के प्रारम्भ में उत्खनन से प्राप्त वहसंख्यक नग्न तीर्थ कर की प्रतिमायें कला में धार्मिक कट्टरता नहीं थी। लखनऊ के संग्रहालय में हैं । तीर्थ कर प्रतिमाओं में 8. वही, आकृति 31 9. भारतीय कला- वासुदेव शरण अग्रवाल, पृष्ठ 281-282, चित्र फलक 3161 10. वही. पृष्ठ 282-283, चित्र संख्या 318 | .... ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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