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________________ अधोवस्त्र का समावेष कुषाणयुग के पश्चात किया प्रतिमाओं की संख्या पर्याप्त रूप से मिलती है। तांत्रिक गया । इस युग में तीर्थ करों के विभिन्न प्रतीकों का भावना ने कला को प्रभावित किया । कलाकारों का परिज्ञान न हो सका था । विभिन्न तीर्थ करों को पह- कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया, परन्तु शास्त्रीय नियमों से चानने के लिए तीर्थ करों की चौकियों पर अंकित बद्ध होने के कारण जैन कलाकारों को स्वतंत्रता न लेखों में नाम का उल्लेख ही पर्याप्त था। रही । इस युग में 24 तीर्थकरों से सम्बन्धित चौबीस यक्ष-यक्षिणी को भी कला में स्थान दिया गया। ..कुषाण युग में मथुरा कला में तीर्थ करों के लांछन नहीं पाये जाते हैं, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण नगर विदिशा के की जाती थी । केवल आदिनाथ के कंधों पर खुले निकट दुर्जनपूर ग्राम से कुछ वर्ष पूर्व रामगुप्तकालीन हए केशों की लटें दिखाई गई है और सुपार्श्वनाथ के तीन अभिलेसन तीन अभिलेख युक्त जैन प्रतिमायें प्राप्त हंई थी। इन निया में मस्तक पर सर्पफणों का आटोप है। तीर्थ कर मूर्तियों प्रतिमाओं की प्राप्ति से भारतीय इतिहास में अर्दशती के वक्ष पर श्रीवत्स एवं मस्तक के पीछे तेजचक्र या से चले आ रहे इस विवाद का निराकरण संभव हो प्रभामण्डल पाया जाता है। फणाटोप वाली मूर्तियों में __ सका कि रामगुप्त गुप्त शासक था या नहीं।" का प्रभामण्डल नहीं रहता। चौकी पर केवल चक्र ध्वज या जिनमूर्ति या सिंह का अंकन पाया जाता हैं। उपयुक्त तीनों प्रतिमाओं में से दो प्रतिमायें चन्द्र प्रभ एवं एक अर्हत पुष्पदंत की हैं। यद्यपि मूर्तियाँ भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से विख्यात कुछ नग्न हैं तथापि कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । गुप्तकाल में यद्यपि जैनधर्म अधिक लोकप्रिय नहीं था, चन्द्रप्रभ की प्रथम मूर्ति के दक्षिण कर्ण में एक कड़ा परन्तु अनेक साक्ष्यों से इस काल में जैन धर्म पर प्रकाश एवं वक्ष पर श्रीवत्स चिन्हांकित हैं। पदमासनस्थ इस पडता है। इस युग में कला प्रौढता को प्राप्त हो चुकी . प्रतिमा के पाठपीठ पर मध्य में चक्र एवं दोनों पार्श्व में थी। जैन प्रतिमायें सुन्दरता एवं कलात्मक दृष्टि से सिंह उत्कीर्ण है । मूर्ति का शरीर गठीला है । मस्तक . उत्तम हैं । अधोवस्त्र तथा श्रीवत्स ये विशेषतायें गुप्त के पीछे आभामण्डल था जो नष्ट हो गया है । चन्द्रल में परिलक्षित होती हैं। जैन मूर्तियाँ बनावट की प्रभ की द्वितीय प्रतिमा का मुख भाग पूर्णरूपेण खंडित दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। प्रतिमाओं में चक्र, चौकी है। पीछे तेजोमण्डल जिसका अर्धभाग ही शेष है। के मध्य तैयार किए गये, जिसके दोनों पार्श्व में दो वक्ष पर श्रीवत्स अंकित यह प्रतिमा भी पद्मासनस्थ हिरण या वृषभ खोदे गए हैं । सिरे पर तीन (चक्र) है । पादपीठ के मध्य चक्र उत्कीर्ण हैं। दोनों पार्श्व रेखाओं का छत्र दिखलाया गया है जिसके दोनों ओर - पर चामरधारी हैं । तृतीय प्रतिमा अर्हत पुष्पदंत की हरित स्थित हैं। गुप्तयुगीन जैन प्रतिमाओं में यक्ष है जो उपरिवर्णित प्रतिमा के ही सद्दश्य है । यक्षिणी, मालावाही गंधर्व आदि देवतुल्य मूर्तियों को भी स्थान दिया गया था। उत्तर गुप्तकाल में जन कला बक्सर के निकट चौसा (बिहार) से उपलब्ध सम्बन्धी अनेक केन्द्र काम करने लगे। अतः स्थानीय कुछ कांस्य प्रतिमायें पटना के संग्रहालय में है । इन 11. विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत मई 1974। विदिशा से प्राप्त प्रतिमायें एवं रामगृप्त-शिवकुमार नामदेव, मध्यप्रदेश संदेश, 28 अक्टूबर 1972 । विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त की ऐतिहांसिकता-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अप्रैल 1974 । १८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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