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________________ तीर्थकर जहां जिन कहलाते थे वहाँ इनके अनुयायी अपभ्रंश, संस्कृत तथा मध्ययुगीन और अनेक आधनिक जैन, और इनका दर्शन एवं संस्कृति जैन दर्शन एवं भारतीय भाषाओं में जैन धर्म का प्रचूर साहित्य जैन संस्कृति कहलाए । इस प्रकार जैन से तात्पर्य है उपलब्ध है । सम्भवत: ज्ञान का कोई ऐसा पक्ष नहीं कि जो जिन धर्म में अर्थात् स्वयं को विजय करने में है जो जन वाङ्गमय से अछूता हो । अनेक भाषाओं में विश्वास करे अर्थात आत्मविजेता बनने का प्रयास करे। तो यह इतना सम्पन्न है, कि यदि इसे पृथक् कर दिया सन 1897 में एक कन्वेन्शन लैक्चर में एनी बेसेण्ट ने जाय तो उसकी आत्मा ही नष्ट हो जाएगी। इस दृष्टि जैन धर्म का सार स्पष्ट कर कहा था कि-"जैन धर्म से जैन वाङ्गमय भारत का सम्पन्नतम वाङ्गमय है। का वातावरण एक वचन में ग्रहित किया जा सकता है। यह वचन हमें सूत्रकृतांग में मिलता है कि मानव इस प्रकार तीर्थकर महावीर के जीवन-दर्शन ने किसी जीव को दु:ख न पहुंचाकर निर्वाण की शान्ति जहां-मानवता को नया प्रकाश दिया वहां जैन वाङ्गमय प्राप्त करता है। यह एक वचन है जो जैन दर्शन ने साहित्य को प्रचुर मात्रा में ज्ञान का भण्डार प्रदान का सारा दर्शन साथ में लिये हुए है। शान्ति: मानव, किया । जैन संस्कृति और सभ्यता ने भी अहिंसा के मानव में शान्ति, मानव और पशुओं में शान्ति, सब व्यापक प्रचार और विश्वशान्ति एवं मानवता की दिशा जगह और सब वस्तओं में शान्ति; सब जीवों में पूर्ण में किये गए प्रयासों द्वारा मानव समाज की उतनी ही बन्धुता जैन धर्म का ऐसा ही आदर्श है और इस आदर्श सेवा की है। विश्व इतिहास में जैनों द्वारा साम्प्रदायिक को हर जैन, संसार में मूर्त स्वरूप में लाने की कोशिश विद्वेष फैलाने या धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार के करता है।" हिंसात्मक कृत्यों के सम्पादन का रंच मात्र भी उदाहरण, आज तक, उपलब्ध नहीं है। इस दृष्टि से भी जैन तीर्थ कर महावीर का यह जीवन-दर्शन अपने संस्कृति गौरवशाली एवं अद्वितीय है। तथापि तीर्थ कर वैज्ञानिक स्वरूप और ताकिकता के कारण उस काल महावीर के निर्वाण के ढाई हजार वर्ष पश्चात् हम यदि के प्रमुख चिन्तकों और बुद्धिजीवियों के बहुत बड़े भाग सम्पूर्ण जैन संस्कृति का पुनर्मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हआ। इस बीच जहां एक ओर जैन धर्मावलम्बियों ने जैन उनके पश्चात् तीर्थ करों के विचार एवं दर्शन को उनके संस्कृति एवं जैन वाङ्गमय का परिवर्द्धन, विकास एवं अनुयायी जैन धर्मावलम्बियों ने लिपिबद्ध किया, उसकी संरक्षण कर मानव जाति की बड़ी महत्वपूर्ण सेवा की विस्तृत व्याख्याएं कीं तथा उन पर टीकाएँ लिखी गई। है; वहां--दूसरी ओर इस बीच विभिन्न संस्कृतियों के उनकी स्मति को चिरस्थायी स्वरूप प्रदान करने के प्रभाव तथा समयानुकूल परिस्थितियों के कारण अपने लिये उनकी विशाल प्रतिमाओं का निर्माण एवं चित्रों को महावीर का अनुयायी कहनेव में भी उनके का अंकन प्रारम्भ हआ। शनैः-शनैः मन्दिर और मठ द्वारा प्रदशित जीवन-पद्धति का स्वरूप कुछ विकृत हो भी निर्मित होने लगे। गया है । अपने वस्त्रों, आभूषणों और राजपाट आदि सभी परिग्रहों का त्यागकर पूर्ण अपरिग्रह को प्राप्त जैन धर्म की अहिंसा ने जहां मानव हृदय को तीर्थ कर महावीर की मूल्यवान पत्थरों व धातुओं की मार्दव प्रदान किया, वहां जैन धर्म की प्रेरणा ने भारतीय प्रतिमाओं तथा मन्दिरों के निर्माण पर अधिक वल शिल्प को, पत्थर को मोम बना देने की अद्भुत क्षमता दिया जाने लगा है। तीर्थकर महावीर ने जहां अहिंसा दी-जैन स्थापत्य इसका स्पष्ट प्रमाण है। जैन वाङ्गमय के वैचारिक एवं आचारिक पक्ष पर बल देते हए प्राणी जैन शिल्प से भी अधिक सम्पन्न है । अर्द्धमागधी, मात्र के प्रति दया, भ्रातृत्व एवं प्रेम पर अधिक बल दिया xix Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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