SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वप्रथम, विस्तृत एवं सूक्ष्मतम व्याख्या कर मानवमात्र तीर्थंकर महावीर ने अपने जीवन-दर्शन के से, अपरिग्रह व्रत को ग्रहण कर, समाज की इकाई क्रियात्मक सत्र के रूप में "सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्राणि के माध्यम से समाजवादी समाज रचना की दिशा दी। मोक्षमार्गः" का विचार देकर रत्नत्रय धर्म की प्रतिपादना इस दृष्टि से वे उग्र समाजवादी विचारधारा के की। उन्होंने इस सूत्र के माध्यम से ईश्वरवाद एवं जनक थे। उनके द्वारा जीवन के आर्थिक पक्ष के सम्बन्ध अवतारवाद तथा कर्म और मोक्ष के सम्बन्ध में पूर्व में जो कुछ भी कहा गया, वह वर्तमान समाजवादी प्रचलित धारणाओं का दार्शनिक विवेचन कर, खण्डन विचारधारा से भी अधिक उग्र और प्रगतिशील था। किया। उन्होंने आदर्श दर्शन, आदर्श ज्ञान एवं आदर्श अन्तर केवल इतना ही है कि उनका यह दर्शन चरित्र को ही मोक्षप्राप्ति का मार्ग कहा । कर्मविज्ञान अहिंसात्मक आधार पर खड़ा है, जबकि समाजवाद की के सम्बन्ध में भी नवीन एवं वैज्ञानिक विचार देते हुए वर्तमान विचारधाराओं में अहिंसा को या तो कोई उन्होंने कहा कि कोई भी मनुष्य अपने कर्मों का स्वयं स्थान दिया ही नहीं गया, या दिया भी गया है, तो ही बन्ध है, अशुभ कर्मों के बन्ध से मुक्ति और शुभ अत्यन्त गौण । इस प्रकार तीर्थंकर महावीर का आर्थिक कर्मों के क्रियान्वयन के द्वारा ही वह कर्मबन्ध से दर्शन अहिंसक साम्यवाद का उन्नायक है। छुटकारा पाकर अपना आत्म-कल्याण करते हुए मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। उन्होंने भाग्यवाद की धारणा तीर्थंकर महावीर सर्व धर्म समभाव में विश्वास का खण्डन करते हुए कहा कि मनुष्य स्वयं ही अपने करते थे । इसकी पुष्टि उनके अनेकान्त दर्शन से होती कर्मो का सचालक है। कोई अन्य शक्ति उसका न तो है, जिसका तात्पर्य; बोध में विभिन्न दृष्टियों के समन्वय निर्धारण ही करती है, न उसके अशुभ कार्यों से उसे से है । दर्शन के इस वैचारिक पक्ष के साथ उन्होंने मुक्ति दिला सकती है। मनुष्य स्वयं के कृत्यों से ही वाणी के द्वारा उन दृष्टिकोणों की समन्वित अभिव्यक्ति अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकता है। "शद्ध आत्मा के रूप में, स्याद्वाद दर्शन प्रतिपादित किया। से परमात्मा" की उक्ति उनके इस दर्शन का मल इस प्रकार तीर्थ कर महावीर ने प्राणीमात्र के मन्त्र है। कल्याणार्थ एक सम्पूर्ण एवं सार्थक जीवन-दर्शन प्रदान किया जो सार्वभौमिक एवं सार्वलौकिक है। ती कर इस प्रकार आत्मविजेता तीर्थ कर महावीर जन-जन महावीर के दर्शन के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट के शिक्षक बन गए। उन्होंने पूर्व धारणाओं एवं करते हुए डा० राधाकृष्णन ने कहा है कि-"व्यक्ति परम्पराओं को तोड़, लोकभाषा में अपने उपदेश दिये । स्वातन्त्र्य तथा सामाजिक न्याय दोनों की मानव कल्याण इस सम्बन्ध में शूबिंग ने अपने विचार प्रकट करते हुए के लिये जरूरत है। हम किसी एक की तरफदारी या कहा है कि-"तीर्थकर महावीर शिक्षक के नाते बड़े की अवहेलना कर सकते हैं, लेकिन जो जैनमत के ही सफल रहे और उनकी विवेचन शैली अवैयक्तिक अनुसार अनेकान्त, सप्तभंगी भय या स्याद्वाद का आचरण रही। अवैयक्तिक तथा कठोर रहना शायद उनके स्वभाव करता है, उसमें सांस्कृतिक आग्रह का अभाव होगा, उसमें की विशेषता थी।" उनकी सभाओं में राजा से रक सद्विवेक बुद्धि होगी तथा वह विरोधी दृष्टिकोण में भी तक, ब्राह्मण से शूद्र तक तथा धनिकों से दीनों तक समन्वय खोजने की कोशिश करेगा। ऐसे दृष्टिकोण को सभी वर्गों और वर्णों के, नर-नारी ही नहीं, पशु-पक्षी हमें अपनाना चाहिये। हम भगवान महावीर के चरित्र और अन्य जीव भी, उनके द्वारा मुखरित वाणी को से संयम, अहिंसा की साधना, परमत सहिष्णुता आदि ग्रहण करते थे। जो भी उनके सम्पर्क में आया, उनका कुछ शिक्षा सीख सकते हैं।" हो गया। xviii Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy