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________________ है। लेकिन जब तत्व की पर्यायों के सम्बन्ध में विचार और न्याय, वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार प्रारम्भ किया जाता है तो बन्धन और मुक्ति की कर देते हैं । बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व को भी निराश सम्भावनाएं स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि बन्धन और कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की धारणा को मुक्ति, पर्याय अवस्था में ही सम्भव होती है। मोक्ष को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्षावस्था को तत्व माना गया है लेकिन वस्तुत: मोक्ष बन्धन के अभाव अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यका ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्व पर तीन ताओं के प्रति उत्तर के लिए ही मोक्ष की इस भावात्मक दृष्टियों से विचार किया है 1. भावात्मक दृष्टिकोण अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि से 2. अमावात्मक दृष्टिकोण 3. अनिर्वचनीय दृष्टि- जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्ठय की उपकोण। स्थिति पर बल देती है। अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार- अनन्त चतुष्ठय कहा जाता है। बीज रूप में यह अनन्त चतुष्ठय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है मोक्ष दशा में जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावात्मक दृष्टि- इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से यह पूर्ण रूप कोण से विचार करते हुए उसे निबाघ अवस्था कहा में प्रगट हो जाते हैं । यह प्रत्येक आत्मा के स्वभाविक हैं। मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण गुण है जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं, मोक्ष जाता है। अनन्त चतुष्टय में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता प्रगटन है। अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य (अव्यावाघसुख) आते आचार्य कून्द-कुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का हैं। लेकिन अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्ठय युक्त अक्षय, आठ गुणों की मान्यता भी जनविचारणा में प्रचलित है। अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय अनुपम, नित्य, अविचल, 1. ज्ञानवरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनालम्ब कहा है । आचार्य उसी ग्रन्थ में आगे चलकर अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है । 2. दर्शनामोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते वरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न हैं। (1) पूर्णज्ञान (2) पूर्णदर्शन (3) पूर्णसौख्य होता है। 3. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से (4) पूर्णवीर्य (शक्ति) (5) अमूर्तता (6) अस्तित्व विशुद्ध, अनश्वर, आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है । (7) सप्रदेशता । आचार्य कुन्द-कुन्द ने मोक्ष दशा के 4. मोह कर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि (क्षायिक जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है वे सभी सम्यकत्व) से युक्त होता है। मोह कर्म के दर्शन मोह भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं है । वेदान्त सप्रदेशता और चारित्रमोह ऐसे, दो भाग किए जाते हैं। दर्शन मोह को अस्वीकार कर देता है । साँख्य, सौख्य एवं वीर्य को, के प्रहाण से यथार्थ दृष्टि और चारित्र मोह के यथार्थ 5. अब्वावाहं अवत्थाणं --अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ६, पृ. ४३१ 6. नियमसार १७६-१७७ 7. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्ख च केवलविरियं । केवलदिद्रि अमूत अत्थित्त सप्पदेसत ।। -नियमसार १५१ १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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