SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से चारित्र (क्षायिकचारित्र) का प्रगटन होता है, लेकिन मानने वाली वैभाषिक बौद्धों और न्याय-बैशेषिक दर्शन मोक्ष दशा में क्रिया रूप चारित्र नहीं होता, मात्र की धारणा का प्रतिषेध किया गया है। मुक्तात्मा के दृष्टि रूप चारित्र ही होता है. अतः उसे क्षायिक सम्य- अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभाक्त्व के अन्तर्गत ही माना जा सकता है, वैसे आठ कर्मों वात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक की 31 प्रकृतियों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस 31 गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्यात चारित्र को प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष दशा का समग्र भावात्मक स्वतंत्र गुण माना गया है। 5 आयुकर्म के क्षय हो जाने चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। यह से मुक्तात्मा अशरीरी होता है अतः वह इन्द्रियाग्राह्य विधान भी निषेध के लिए है । नहीं होता। 7 गोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से वह अगुरुलधुत्व' से मुक्त हो जाता है अर्थात् सभी सिद्ध अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्व पर विचार-- समान होते हैं उनमें छोटा बड़ा या ऊँच नीच का भाव नहीं होता। 8. अन्तरायकर्म का प्रहाण हो जाने से जैनागमों में मोक्षावस्था चित्रण निषेधात्मक रूप बाधा रहित होता है, अर्थात् अनन्त शक्ति सम्पन्न होता से भी हआ है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में है। अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण निम्न प्रकार से प्रस्तुत ही है यह मात्र बाधाओं का अभाव है। लेकिन इस किया गया है। मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर मुक्तात्मा के र पर मुक्तात्मा के जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्म जन्य उपाधियों का आठ गुणों की व्याख्या का मात्र एक व्यवहारिक संक- भी अभाव होता है अतः मूक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्वस्व ल्पना ही है। उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वचन नहीं है. न वृताकार है, न त्रिकोण है न चतुष्कोण हैं, न है । व्यवहारिक दृष्टि से उसे समझने का प्रयास मात्र परिमण्डल संस्थान वाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, है इसका मात्र व्यवहारिक मूल्य है। वस्तुतः तो बह रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है, वह सुगन्ध और अनिर्वचनीय है। आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में दर्गन्धवाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण कटक, खट्टा, मोठा स्पष्ट रूप से कहते हैं, सिद्धों के इन गुणों का विधान एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरू, लघु, कामल, मात्र सिद्धात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में जो एकान्तिक कठोर. स्निग्ध कक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों मान्यताएं हैं उनके निषेध के लिए है।। मुक्तात्मा में का भी अभाव है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसक केवल ज्ञान और केवल दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग है। इस प्रकार मुक्तात्मा में रूप, रस, वण, गन्ध आर और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़ स्पर्श. भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में 8. कुछ विद्वानों ने अगुरूलघुत्व का अर्थ न हल्का न भारी ऐसा भी किया है। 9. प्रवचनसारोद्धार द्वार २७६, गाथा १५६३-१५६४ 10. सदासिव सखो मक्कडि बुद्धौ याइयो य वेसेसी। ईसर मंडलि दंसण विदूसणठें कयं एदं ॥ -गोम्मटसार (नेमिचन्द्र) 11. से नदीहे, न हस्से, न वटे, न तंसे, न चउरसे, न परिमंडले, न किण्हे, न नीले,न लोहिए, न हालिद्दे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कड्रए, न कसाए, न अंबिले, न मेहरे, न कक्खड़े, न मउए, न गुरूए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्ध. न लुक्खे, न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा,-से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे । आचारांगसूत्र ११५।६ १४३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy