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________________ जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप, एक तुलनात्मक अध्ययन * जैन दर्शन के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है उसे 'मोक्ष' कहा जाता है । कर्म मलों के अभाव में कर्म जनित आवरण या बन्धन भी नहीं रहते और यह बन्धन का अभाव ही मुक्ति है" । मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । अनात्मा में ममत्व आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना यही मुक्ति है । यही आत्मा की शुद्धावस्था है । बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि का विषय है । आत्मा की विरूप पर्याय हो बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है। पर पदार्थं, पुद्गल परमाणु या जड़ कर्म वाणिओं के निमत्त से आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर मैं ( मेरा पन) उत्पन्न होता है यही विरूप पर्याय है, परपरिगति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएं मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण कुण्डल और स्वर्ण मुकुट Jain Education International 1. कृत्स्न कर्मक्षयान् मोक्षः, तत्वार्थ सूत्र १०१ 2. बन्ध वियोगो मोक्षः - अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ६, पृ. ४३१ स्वर्ण की दो अवस्थाएं हैं। लेकिन यदि मात्र विशुद्ध तत्व दृष्टि से विचार किया जाए तो बन्धन और मुक्ति दोनों की व्याख्या सम्भव नहीं है क्योंकि आत्मतत्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणित नहीं होता । विशुद्ध तत्वदृष्टि से तो आत्मा नित्य मुक्त 3. मुक्खो जीवस्स शुद्ध रूबस्स - बही, खण्ड ६, पृ. ४३१ 4. तुलना कीजिए (अ) आत्मा मीमांसा (दलसुखभाई), पृ. ६६-६७ डाँ. सागरमल जैन ( ब ) ममेति बध्यते जन्तुर्नममेति प्रमुच्यते । - गरुड़ पुराण । १४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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