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________________ नवमप्रकाश. ४४ ॥श्री जिनाय नमः॥ नवमः प्रकाशः प्रारभ्यते. हवे सात श्लोकोयें करीने रूपस्थ ध्येयतुं खरूप कहे . मोदश्रीसंमुखीनस्य, विध्वस्ताखिलकर्मणः॥ चतुर्मुखस्य निःशेष, नुवनानयदायिनः॥१॥ इंजमंडलसंकाश, बत्रत्रितयशालिनः॥ लसनामंडलानोग, विडंबितविवस्वतः॥॥ दिव्यांनिनिर्घोष, गीतसाम्राज्यसंपदः॥ रणदिरेफऊंकार, मुखराशोकशोनिनः॥३॥ सिंहासननिषमस्य, वीज्यमास्य चामरैः॥ सुरासुरशिरोरत्न, दीप्तपादनखातेः॥४॥ दिव्यपुष्पोत्कराकीर्णा, संकीर्णपरिषद्धवः॥ उत्कंधरैर्मृगकुलैः, पीयमानकलध्वनेः॥५॥ शांतवैरेनसिंहादि, समुपासितसंनिधेः॥ प्रनोः समवसरण, स्थितस्य परमेष्टिनः॥६॥ सर्वातिशययुक्तस्य, केवलज्ञाननास्वतः॥ अर्हतोरूपमालंब्य, ध्यानं रूपस्थमुच्यते ॥७॥ ॥ सप्ततिः कुलकं ॥ अर्थः- मोक्षनी लक्ष्मीनी सन्मुख थएला, तथा नाश करेल , सघलां कर्मों जेमणे एवा, तथा चार मुखोवाला, तथा सघला जुवनोने अजयदान देनारा, तथा चंजमंडल सरखा त्रण बत्रोथी शोजता, तथा उलसायमान थता नामंडलथी तुलना करेल , सूर्यनी पण जेमणे एवा, तथा दिव्य इंजिना शब्दो सहित उत्तम ने गीतनी संपदा जे. मनी एवा, तथा ऊंकार करता एवा जमराऊना शब्दथी मुखरित (शब्दायमान) थएल बे, अशोक वृद जेमनुं एवा. तथा सिंहासनपर बेवेला, अने चामरोथी विजाता एवा, तथा सुरासुरना मुकुटोथी कांति
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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