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________________ (जैनमित्र (सितंबर सन १९.०० ) का क्रोडपत्र) जैनपत्रिका अंक ३८ और ३९ का युक्तिपूर्वक खंडन. (जुगुल किशोर जैन सिरसावा निवासी लिखित) प्यारे पाटको! कलही मरेपास लाहोरस अकस्मात् जैनपत्रिकांक दो अंक नम्बरी ३८ व ३९. आये उनको पढा ता चिनको अत्यंत क्लेश उत्पन्न हुआ. अंक ३८ में उनर नया जैनपत्रिका कीराय दाताकी बुद्धिपर विशेषतः शोक हुआ. पत्रिकामें इन असभ्य, अनचिन और उन्मार्गी शब्द है कि जिनमें प्रत्येक न्यनि. ( मनुष्य ) जिसको थोडीसी भी बाद भन्न भांति उनकी बुद्धि और परिणतिका अनुमान करसक्ता है बार कह सकता है कि आपने अभी जिन मतका जालम भी नहीं पढ़ा और समझा है, यदि मा ता तो कदापि विना विचारे आंख मदकर शब्दों को न लिग्रने और माना अमभ्यपना लोपर प्रगट न करत, ग संगाग्नईक और उन्ननिमें विघ्न कारक, लग्यों को पनकर कौन परोपकांग है जो कर बैठा है और संसारसमुद्र में दबते भादगीको शम्नावलंबन दे रक्षा न कर ! अतः हमको अवश्य दुर्गर निगका और मुबारक अर्थ तस्वनी उठानी पड़ी। अंक ३८ पृष्ठ 3 में ज नमित्र का उत्तर लिया है. मा उममें सिवाय भल. आदमिगोको गालियां देने. अगोग्य बचन करने और अपनी मनमानी प्रगट करनेक. कोईभी उनर नही दीख पड़ता है: जो दृष्टान्न उसमें दिग है. उनका उलट कर अपने ऊपरही लगायत है या उनका उत्तर यो हासना है कि-यदि जोक गायकं थनपर लगी दचको छोह मविरकं पानहीमें वा अन्य प] बुर्ग वस्तु खानहीम गुग समझें और दोप न समझे तो क्या सबको उनका अनुयायी होना चाहिये ? नहीं कदानि नहीं और यह लिवकर ना आप बड़े प्रसन्न हुए होंगे कि " यह पत्र अंट मंत्र एक कीडी.......गेक सनी है. “मो झंट मटका मिद करना ना बहुत बड़ी बातहै, और शकिस वाहिरही मालूम होताहै. परन्तु उनके हटान्नका आशय नो उन्हींकर बाधित है. क्योंकि नई रोशनीवालों के माने हुए पृथ्वीस १३ लाग्य गृणित सर्यको एक या दो अंगुलियां दक मनी है, वा एक महान हस्ताको होटामा अंकुश वशमें कर देता है, अथवा एक छोटासा मच्छर आपकं सर्व अंगमें पीडा वा आकुलना उपजा मक्ताहै, और एक अग्निका फुलिंगा ( चेंका ) बडे २ शाहगेको भस्म कर देताहै, और उनका यह दिग्वना कि "एक जैन मित्र क्या..... वगबर होगा और होना चाहिय" सो यही यथार्थ नहीं है क्योंकि उनहीं जैसे सर्व भाई संकुचित बुद्धि नहीं हैं, सबको अपने हेयादेयका विचारहै, शिष्टाचारको लाप पमा निंद्य और घृणितकार्य कर कोईभी अपनेको समाग्में नहीं भ्रमासंगा. और न म्मग्ण मात्रकर हृदयको सकंप करनेवाले नग्कोंक दुःग्वोंको भोगना चाहेगा, और कुछ भी होय यह तो बात हम बहतही जोरसे कह सक्ते हैं कि एक क्या लाख जैन पत्रिका चली आओ "विधवा विवाह होना चाहिये" इसको कोई सिद्ध नहीं कर सक्ताः विना मंडन किये और दसरोंकी युक्तिका ग्वंडन किये पक्षपात कर अपने घग्में जो चाहै कोई मानले, बहतसे
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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