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________________ मनुष्य मांस और मदिराभी तो खाते हैं परन्तु परीक्षावान् तो कभी ग्रहण नहीं करेंगे । जैनमित्रके अंक ६ पृष्ठपर यह वाक्यहै “ और निश्चयहै कि यहांकी बिरादरी उनको जातिबाहर करदेगी" जिसपर संपादक पत्रिकाने अतिकोलाहल मचायाहै और बार २ अपनी कानूनकी चक्कीके दुःखोंको तथा जेलखानेकी रोटियोंको स्मरण कियाहै, इससे मालूम होताहै कि न तो उन्होंने जैनमित्रके आशयको समझाह और न ताजीरात हिन्द ( इंडियनपैनलकोड ) की दफे (सैक्शन ) ४९९ को साथ तशरीह ( एक्सल्पैनेशन ) और दसों मुस्तस्त्रियात् ( एक्सैप्शन्स ) के देखा तथा समझाहै, यदि ऐसा होता तो कदापि वे ऐसा न लिखते और स्वयं दशो जगह ऐसे शब्दों और वाक्योंका प्रयोग न करते, जिनसे वे स्वयंही उस चक्की और रोटियोंके भागी हुए जाते हैं, परन्तु “जैनमित्र" चूंकि जैन जातिका सच्चा मित्रहै इसकारण वह मित्रताही करताहै किसीको चक्की दिखाना वा रोटियां खिलाना नहीं चाहता, और वे क्या जैनमित्रका जैनमित्रपना निकाल सक्ते हैं, बहुतसे दुष्टोंने पहिले मुनियोंको कष्ट दिये सो साधओंने परोपकार ही किया, अन्तमें दुष्टोकोही लज्जित होना, दुःख उठाना, और शरण लेना पडा, इसीप्रकार जो कोई विरोधी होंगे, यद्यपि जैनमित्रका कुछ नहीं करसक्ते, परन्तु अन्तमें उनको पछताना पड़ेगा, और उनका वह वाक्य कोई प्रकार अनुचितभी नहीं दिखाई देता और न ऐसा प्रतीत होताहै क्योंकि यह बात सब जानते हैं कि वहपत्र किसी खास जाती ( निजी ) नहीं हैं किन्तु मुम्बई की दिगंबर जैनसभाका है, और यह सभा महासभा मथुराको शाखासभा होनेसे वह पत्रभी कुलभारतवर्षकाहै, और यह बातभी सर्वमान्यहै कि जब अपनी सेनाका कोई हाथी बिगड जावै और अपनीही फौजका घमसान करने लग जाय तो उस हानिके रोकनेके लिये यही उपाय श्रेष्ठ होसक्ताहै कि या तो उसको अपनी सेनासे बाहर निकालदें वा योग्य बंधनोंसे बान्थें, बस यही दशा जातिकी है,यदि जातिमें रहकर कोई पुरुष ऐसा कार्यकर जो हानिकारक और धर्मके विरुद्धहो और उसी हालतमें उसके जातिमें रहनसे अन्य मनुष्योंपर उसका बुरा असरपडै और उनकेभी धर्मच्युत और उद्धृत होनेकी संभावना ( अहतमाल )हो, तो अपने अन्यभाइयोंके हितकेलिये इससे अच्छा और क्या उपाय हो सकताहै कि या तो उसको जातिसे पतित कियाजाय, अथवा उसको योग्य दंड दिया जाय, यदि स्वच्छन्द विचरने दिया जाय तो आधिक हानिकी संभावना स्वतः सिद्धहै, ऐसी दशामें यदि सभा जातिके हितकी अभिलाषासे ऐसे मप्रचलित निंद्य और घृणितकार्यके करनेवालोंको दण्ड देनेको कहै सो योग्यही है. देखो दण्डादिक देना कोई नवीन बात नहीं है शास्त्रोक्तहै और यह वाक्यभी उन्होंने स्वयंही कल्पना नहीं कियाहै किन्तु “ दोनों जगहोंकी विरादरी उनसे नाराजहै और उनका भाईभी उनसे जुदा होगयाहै ” इत्यादि खबरोंसे निकाला है । और मेरटके लखपती ऐसे वे समझ नहीं हैं जो उनकी चालोंमें आजाय किन्तु महागंभीर स्वयं हेयोपादेयके विचारक और इस महानिंद्यकार्यसे होनेवाले दूषणोंके ज्ञाताहै । वैसे तो बेटीवालेभी मुयोग्य ज्ञात हुएहैं परन्तु नहीं मालूम किस निमित्तजनित पक्षपातकर अभी उनकी बुद्धि पाच्छादित है । अन्य मनुष्योंको झूठी प्रेरणाकर जो सम्पादकने धमकी दी है सो उससे कोई भय नहीं करता क्योंकि "सांचको क्या आंच ?" और दूसरे महासभा वा मुंबई मादिक प्रांतिकसभाओंके प्रबं. धकर्ताभी कोई सामान्य मनुष्य नहीं हैं लखपती और करोड पती हैं।
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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