SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २ ) 66 शब्द सप्तमीका एक वचन 'पत्यौ' बनता है, तो क्या यह श्लोक अशुद्ध है? नहीं नहीं? अशुद्ध नहीं है किन्तु यह नञ् समासान्त " अपति " के सप्तमीका एकवचन " अपती "है मो पनि शब्द के मांगे अपनी शब्द ओगा तब एक: पदान्तादति" इस सूत्र से पतिनेक एकारको और अपनौके अकारको पूर्वरूप एकादेश होकर " पतित पतौ "ऐसा बनगया, अब यहाँपर यह बिचारना चाहिये कि अपनि शब्दका क्या अर्थ हैं ? संपादकजी महाशय ! परनञ्समास है और न समास के दो भेद होते हैं एक पर्यदास और दूसरा प्रसाक. दारा उसको कहते हैं जो तदिन्न तत्सदृशका ग्रहण करनेवाला होय और प्रसह्यक उसकी कहते हैं जो निषेधमाका करनेवाला हो सो यहाँपर पर्युदास समास है इसलिये अपनि श 1 का अर्थ पतिभिन्न पनिसदृश हुआ सो पनिभिन्न पति मदृश वही पुरुष होता है कि जिसके साथ वाग्दान : सगाई तो होगया हो लेकिन विवाह नहीं हुआ हो इसलिये इस ओका यह अर्थ है कि कदाचित् वह रूप जिसके साथ वरदान होगा और विवाह नहीं है कहींको भागजाय या मरजाय या संन्यासी होजाय या नपुंसक होजाग अथवा किसी विशेष जाति पतित करदिया गया होय तो इन पंच आपत अवस्थाओं में श्रीका विवाह दूसरे के साथ होना चाहिये अव विचारिक प्रथम सम्पादक महाशयके महका पता नहीं है कि नाम किन को सत्य तिनेन्द्रोक स्वतः प्रमाण और किन २ को असत्य अल्प बुद्धियोंके बनाये हुए प्रमाण मानते हैं जबतक इसका निर्णय न होते तक किसी शास्त्रका प्रमाण देनामी व्यर्थ है और सम्पाद कजीका गहनी कथन क पुरुष तो अनेक विवाह करमने तो स्त्रियां वर्षो न करें ? इसका उत्तर यह है कि जैनशास्त्री बहुत धम्म ऐसे लिखे हैं कि श्री और पुरुष सबके लिवकन, जैसे जप, तप, शम, दम. संयम इत्यादि और बहसे ऐसे नम्मे लिखे हैं कि रुके लिये नाकर्तव्य और विकलिये निषेध जैसे वैराग्य अवस्था पुरुपक लिये तो दिगंबर वेष नन्नपना और वियोक अर्थात अजिंकाओं के लिये एक उनका वारण लिखा है फिर देखिये कि ज्ञान प्राप्त होनेपर पुरुषो मोक्षको जाते हैं परन्त त्रियां नहीं जाती. इससे रूप और त्रिक सत्र कामकी समता करना बडी मूल हैं-नजाने संपादक जैनपत्रिकाको कैसी उल्टी समझ हो रही है और जैन धर्म के प्रतिकल बदनामीका टोकरा अपने शिरपर रखे हैं. अती महाशयजी ! यह संसार 1 इसमें अपने कमनिसार कोई हँसना है. कोई होना है, कोई जन्मनेही अन्य बहिरा दो और कोई जन्मसेही आरोग्य मुख पैदा होना प्रत्यक्ष देखने आह कि तिनीही सवा सुहागिनी स्त्रियाँ वेश्या हो जाती है अथवा व्यभिचार करना है और बहुतसी स्त्रियां ऐसी है कि बालपनसंही विधवा हो ई परन्तु आजन्म दूसरे पतिका ध्याननक ने किया यदि उस विधवानो पति और पुत्रका भाग्यं वदा होना तो वह विवाह क्यों होती ? उसको तो पूर्वके दुष्कम्मका फल इससे बुद्धिमनको चाहिये कि ऐसे कसे बचकर बीतराग प्रतिपादित निर्मल वर्षका आचरण कर जीवनमरणरहितही मोक्ष के प्रतिगामी होनेकी चेष्टा करें। शेष फिर / बाबू दौलतरामजैनीमिरजापुर. • ज्ञानसागर छापाखाना मुम्बई,
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy