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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. अप्रकाशित पड़े हुए हैं; युरोपियन ग्रन्थकारोंका लक्ष भी अद्यापि इस धर्मकी जैनधर्म में अनास्था. और इतना खिंचा हुआ नहीं दिखता यह भी इस धर्मविषमैं हम लोगोंके अज्ञानका एक कारण है. हमारे पड़ोस के विषयका परिचय भी हजारों को सांके यूरोपियन ग्रन्थकार लिख देवेंगे तब हमें पढ़नेको मिलेगा स्वतः परिचय पानेकी सुधि ही नहीं है । इससे जैनियोंकी समाज जैसी जोरशोर से उन्नतिमें आना चाहिये वैसी अभीतक नहीं आई. अतएव बौद्धधर्म प्राचीन है अथवा जैनधर्म ? इस प्रश्नके सम्बन्धमें जैसा इकतरफ़ी लोग कहें वैसा ही कानसे सुनकर मान लेने के सिवाय अन्यमार्ग नहीं था. परन्तु आनन्दका विषय है कि, आजकल जैनी लोगों में इतिहाससम्बन्धी जागृति होने लगी है. पिछले जैन परिषदके अधिवेशनमें जैन ग्रन्थोंका जीर्णोद्धार करनेकेलिये एक बड़े फंडकी स्थापनाका प्रस्ताव हुआ है. प्राचीन मंदिर, मूर्ति, शिलालेख व ग्रन्थोंका मार्मिक परीक्षण व ब्राह्मणधर्म तथा बौद्धधर्मके ग्रन्थोंसे जैन ग्रन्थोंकी तुलना कर देखनेकी सुशिक्षित जैनियोंमें अधिकाधिक चाह दिखने लगी है, उनके प्रयत्नसे जैनधर्मका कालनिर्णय सम्बन्धमें दूसरी ओरके प्रमाण भी आने लगे हैं; उनपर से विचारने में बौद्ध धर्मसे किंवा उसके पीछे नैन धर्म निकला है ऐसा नहीं दिखता; किन्तु उलटा जैनधर्म प्रथमका व पीछेसे बौद्धधर्म निकला होगा ऐसा जान पड़ता हैं. इस सम्बन्धमें हमारे जैनी लेखकोंने निम्नलिखित प्रमाणोंका शोध किया है. जैनधर्मकी तरफके प्रमाण. २३ (१) जैनियोंके चौविसवें तीर्थंकर महावीर, गौतमबुद्ध समकालीन थे. प्रोफेसर विद्याभूषण कहते हैं कि, वे बुद्धकी अपेक्षा वयस्क भी थे. मिसेस ऐनी बिझेंट कहती हैं कि, महावीरने ही बुद्धको गुरुउपदेश दिया. (२) महावीरके शिष्यका नाम गौतमस्वामी व इन्द्रभूति था. वही ज्ञानमार्गम एक २ सिढ़ी चढ़ा, तब उसे लोग बुद्ध कहने लगे. और इस विषयमें इराणी ग्रन्थका आधार है ऐसा डाक्टर हौग कहते हैं. ( Fravardin Yasht-quoted. by Dr. Hoau in the Essay on the Sacred Languaage of the Parsees Bombay. 1862 P. 188 (३) अन्य कितनेकोंका मत है कि, गौतम बुद्ध महावीरका शिष्य नहीं; पिहिताश्रवका था. व पिहिताश्रव यह महावीर गणधरोंमें मुख्य था. ( ४ ) ललितविस्तर नामक ग्रन्थकी प्रति जो तिब्बतमें उपलब्ध हुई है उसमें गौतमबुद्धका वर्णन करते हुए कहा है कि, बुद्धके वक्षस्थलमें श्रीवत्स, स्वस्तिक, नंद्यावर्त, और बर्धमान ऐसे चार चिह्न थे. इनमेंसे पहिले तीन अर्थात् श्रीवत्स, स्वस्तिक और नंद्यावर्त यह अनुक्रमसे १० वें, ७ वें और ११ वें जैन तीर्थंकरोंके विशिष्ट चिन्ह थे; और अन्तिम वर्धमान यह तो २४ वें तीर्थंकरका नाम था.
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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