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________________ २२ जैनधर्मपर व्याख्यान. जैनियोंके अर्धमागधीमें हैं, बौद्धोंने बिहार व मायाके भ्रम में पडकर जुदी २ पर्यायों में आता है और अन्तमें कर्मबंधो से मुक्तता पाकर अर्थात् मायाका आवरण दूर कर निर्वाणमें पहुंचता है ऐसी जैनियोंकी श्रद्धा है. निर्वाण आत्माका नाश नहीं किन्तु उसे कर्मबंधसे निर्मुक्तकर अवणकी व्याख्या इसप्रकार है. क्षय सुखको प्राप्त करना है: बौद्ध शास्त्रों में नि नग्नताको भी बौद्ध और जैनधर्म इनमें यह साम्य जैसे अनेक बातों में स्पष्ट दिखता है, वैसे कुछ थोड़ीसी बातोंमें इन दोनों में भिन्नता भी दिखती है. “न चाभावोऽपि निर्वाणं कुत एवास्य भावना भावाभावविनिर्मुक्तः पदार्थो मोक्षमुच्यते ॥' बौद्ध शून्यवादी तो जैन स्याद्वादी हैं, बौद्ध ननत्वका निषेध करते; दिगम्बर जैन इस प्रकारकी है. सारांश बौद्धोंकी दृष्टिसे निर्वाण अर्थात् शून्यता, जैनियोंकी दृष्टिमें निर्वाण अंतःशुद्धताकी साक्ष समझते हैं. शून्यता नहीं यह पहिले बतलाया ही है. प्रधान ऐसे अहिंसातत्त्व के जैनधर्म व बौद्ध धर्ममें जो साम्य दिखता है। भिन्नता दिखती है. हमारे हाथसे जीवहिंसा न उसपर से जैनधर्म बौद्धधर्मका होने पावे इसकेलिये जैनी जितने डरते हैं इतने अनुकरण है व मूल प्रथमका है बौद्ध नहीं डरते. अधिक क्या हर्वार्थ साहिबने अनुकरण पीछेसे हुआ है, ऐसी अपने Religion of India नामक पुस्तक तर्क कई एक पंडितोंने किया है. एकबार देखने दन्तकथा के आधारसे लिखा है. वह यदि ठीक से यह अनुमान ठीक जान पडता है. बौद्धध है' तो स्वतः गौतमबुद्ध सूअर के मांसका यथेच्छ | मके सम्बन्धमें अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं; भोजन करनेसे अजीर्ण होकर मरा! यह सुन इस धर्मका परिचय सत्रको होगया है, और कर बहुतोको आश्चर्य होगा. इस दंतकथापर | तदरिक्त पाश्चात्य ग्रन्थकारोंने बौद्धधर्मके इतिहास भरोसा न करो तो भी प्रचलित जैन व बौद्ध लिखे हैं; परंतु जैनधर्मके विषयमें अभीतक वैसा धर्म इनकी तुलना करनेसे बौद्धधर्मी देशमें मां कुछ भी नहीं हुआ है. बौद्धधर्म चीन, तिब्बत साहार अधिकता के साथ जारी है यह बात स्वीकार । जापानादि देशोंमें पचलित होनेसे और विशेषकर करते नहीं बनेगी. आप स्वतः हिंसा न करके दूसरे के उसे उन देशोंमें राजाश्रय मिलनेसे उस धर्मके द्वारा मारेहुए बकरेका मांस खानेमें कुछ हर्ज | ग्रन्थोंका प्रचार अति शीघ्र हुआ; परंन्तु जैनधर्म नहीं है, ऐसे सुभीतेका अहिंसातत्त्व जो बौ | साम्प्रत हिन्दुस्थानके बाहर अधिकता नहीं; द्धोंने निकालाथा वह जैनियोंको सर्वथा स्वीकार और हिदुस्थानमें भी जिन लोगोमें वह हैं वे नहीं. निर्वाण और पाप पुण्यके सम्बन्धमें बौद्ध- व्यापार व्यवहारमें व्यापृत होनेसे धर्म ग्रन्थ प्रकाधर्म व जैनधर्म में अन्तर है. बौद्ध आत्माको नि शन सरीखे कृत्यकी तरफ लक्ष देनेकेलिये अवस्य नहीं मानते; जैन मानते हैं. यह आत्मा काश ही नहीं पाते. इस कारण अगणित जैनग्रन्थ स्तूप बनवाये व शिलालेख लिखे वैसे जैनियनें भव्य मन्दिर बनवाये विशालमूर्तियें स्थापित कीं और शिलास्तंभ भी खड़े किये. दोनोंकी वि भिन्नता. दोनो धर्मो विषय में कौन असल कौन नकल.
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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