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________________ क्या ये हमारे गुरु है? किया है कि न तो सरकारी कालेजों के और न उपर्युक्त प्राइवेट कालेजों के अध्यापक हमारे यथार्थ गुरू हैं। जापान के इतिहास से यह बात विदित होती है, कि जापानी- . विद्यार्थियों ने यूरप की विद्या, विदेशियों के द्वारा, प्राप्त की; परंतु स्वदेशाभिमान, स्वदेशभक्ति, स्वदेशप्रीति और स्वदेशोन्नति के तत्वों की शिक्षा उन लोगों ने, कुकुजावा, टोगो, ईटो आदि अनेक जापानी-वीरों (अर्थात् अपने देशभाइयों) ही से प्राप्त की। क्या इस उदाहरण से हम लोगों को कुछ शिक्षा लेनी न चाहिए ? हिरण्यकश्यप और उसके पुत्र प्रह्लाद की पौराणिक कथा प्रसिद्ध है । हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद की शिक्षा के लिये, अपने मत के अनुसार, अनेक गुरू नियत किये थे। परंतु प्रह्लाद के मन में जिस श्रीकृष्ण भगवान् की भक्ति और प्रीति थी, उस विषय की शिक्षा उक्त गुरू में से किसी एक ने भी उसे न दी । उस समय उसने जो कुछ कहा है उसका वर्णन, वामन पंडित नाम के कवि ने, मराठी में, इस प्रकार किया है:-- हे तो गुरू पापतरू सणावे । अंधाहुनी अंध असे गणावे॥ दे प्रति कृष्णों गुरु तोच साच । श्रुत्यर्थ इत्यर्थ असे असाच ॥ इसका भावार्थ यह है:-ये गुरू पापतरू' ( पाप-वृक्ष ) हैं। इनको अंधों से भी अधिक अंधे समझना चाहिए। जो गुरू श्रीकृष्ण के संबंध में प्रीति की शिक्षा दे वही सबा गुरू है-यही श्रुति का अर्थ है। जिस प्रकार प्रह्लाद के उक्त गुरू, कृष्ण-भक्ति विषयक शिक्षा देने के काम में, निरुपयोगी थे; उसी प्रकार हमारे वर्तमान सयय के गुरू, अपने छात्रों को स्वदेशभक्ति की शिक्षा देने के काम में, निरुपयोगी हैं। और जिस प्रकार कृष्णमक्ति की इच्छा रखनेवाले प्रह्लाद ने अपने पिता के नियत किये हुए गुरू की कुछ परवा न की, उसी प्रकार हमारे देशाभिमानी छात्रों को भी अपने उन अध्यापकों की कुछ परवा न करनी चाहिए जो सरकारी गुलाम बन बैठे हैं। यदि ऐसा न किया जायगा तो परिणाम
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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