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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. सबसे ज्यादा गौरव के योग्य है क्योंकि यही निर्वाण पा सक्ता है सबसे ऊंचे स्वर्गका देव भी मोक्षको प्राप्त नहीं हो सक्ता क्योंकि उसको जिन अर्थात् अर्हत् सदृश बनकर मोक्ष पानेकेलिये मनुष्य जातिमें अवश्य जन्म लेना पड़ेगा । अजीव पांच प्रकारके हैं पुल ( प्रकृति वा माडा ), धर्म, अधर्म, काल, और आकाश || ४८ जीवित प्राणी में आत्माका पुदलसे मेल होता है. आत्माका पुगलसे इसप्रकारका संयोग अनादि है कर्म भी पुट्रल हैं. कर्मोंके बंधनके कारण आत्मा जन्मोंके चक्कर में फिरता रहता है नये कर्मोंके आनेका नाम भाव हैं, उनका आत्मासे संबंध ( मिलाप ) होने का नाम बंध है, नये कर्मों के द्वारका रोकना संवर कहलाता है और पिछले क मका फल भोगकर विरजानेका नाम निर्जरा हैं । इससे अगला दर्जा मोक्षका है । यह जैनियोंके सात तत्व हैं जिनमें यदि पुण्य और पाप और मिलादिये जांय तो नौ पदार्थ होजाते हैं. यह जीव वा आत्मा सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् और अनादि हैं और इसमें और भी असंख्यात गुण हैं. कर्म जड़ ( पुल ) हैं. उनका आत्मासे सम्बंध होनेके कारण आत्माके सब गुण छिप जाते है। कमोंके बन्धनमें जीव अपना स्वरूप भूल गया है और जो स्वरूप इसका यथार्थ में है उससे विरुद्ध प्रायः अपने आपको ममझता है । ऐसे आत्माको बहिरात्मा कहते हैं । कर्म आठ प्रकारके हैं अर्थात् १ ज्ञानावरण २ दर्शनावरण ३ मोहनीय ४ अंतराय ५ आय: ६ वेदनीय ७ नाम और गोत्र । Satara ज्ञानको रोकता है और दर्शनावरण दर्शनको इत्यादि । इन कर्मामें से जो आयु कर्म हैं सां जन्म और मृत्यु है. एक आयुकर्म के अंत होने और दूसरे आयुकर्मके शुरू होनेके सिवाय और कुछ नहीं हैं । जब किसीजीवका आयकर्म समाप्त होनाता है तो उसकी आत्मा शरीर से निकल जाती हैं जिसकी लोग कहते हैं कि उसकी मृत्यु हो गई । जब उसकी आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश करती है तो लोग उसको जन्म कहते | इसप्रकार जीव कमौके बंधन के कारण एक शरीरसे दूसरे शरीर में फिरता रहता हैं जबतक कि वह समय न आजाय कि वह अपने कर्मोंका नाश करके और असली गुको फिर पाकर जिन वा अर्हत बनजाय और मोक्षकी प्राप्तिकरके अपने स्वरूपमें अविनाशी सुखका अनुभव करे || महाशयो ! ऊपर लिखा हुआ जैनमतका कुल सार इस गृढप्रश्नका उत्तर हैं कि में कौन हूं ? यह संसार क्या है ? में कहांसे आया हूं? कहां जाऊंगा? और इन सब बस्तुओं का क्या परिणाम होगा ? इस प्रश्नका उत्तर अनेक महान पुरुषांने अनेक देश और अनेक समय में अनेकप्रकारसे दिया है कोई भी दो उत्तर एक दूसरेसे नहीं मिलते यही मतों और में भेदका कारण है। जैन तीर्थकर अर्थात् प्राचीनसमय के क्षत्रिय
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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