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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. ४९ महर्षियोंने भी ऊपर लिखी भांति इस विषयको हल किया है, उन्होंने भी हमको बतलाया हैं कि आत्मा अनादि है । कर्म अनादि हैं और संसार अनादि है । न इसका कोई कर्त्ता है न हर्ता. आत्मा जैसा बीज बोता है वैसा ही काटता है, हमारा भाग्य हमारे ही आधीन है और महाशय ! तीर्थकरोंका यह (उपर्युक्त ) उत्तर मुझको सबसे श्रेष्ठ मालूम होता है और सबसे उत्कृष्ट सदाचार से भरा हुवा प्रतीत होता है और शुभ आचरण करनेके लिये मुझको सबसे ज्यादह प्रेरक भी मालूम होता है क्योंकि हम अपने स्वर्गको परमेश्वर वा उसके पुत्र और प्रतिनिधियोंकी पूजाके क्यों आधीन करें ? उसको अपने ही कम के आधीन क्यों न करे ? ऐसा ईश्वर अवश्य अनोखा देव हैं जो केवल भक्ति करसे प्रसन्न होता है। हम ईश्वरको अपने कर्मों का न्यायाधीश भी नहीं मानते हैं क्योंकि इसमें बहुत से उज्ज्र पैदा होते हैं और इससे ईश्वर बढी मद्दी स्थिति में रक्खा जाता है। इसी कारण से हम जैनी ईश्वरकी सबसे उच्च मूर्तिका जैसे सर्वज्ञ अविनाशी और अनंत सुखी आदिका ध्यान करते हैं। हम यह नहीं मानते कि वह झूठी तारीफको स्वीकार करता है एकका बध और दूसरेकी रक्षा करता है और जितनी कोई स्तुति और पूजा करता हैं उनके मुताबिक स्वच्छन्दतासे न्याय करता है. हम उसको अपने कर्मो का न्यायकर्त्ता भी नहीं मानते हैं. हमारा देव सबसे पवित्र आत्मा, हमको आदर्शकेलिये सबसे उत्कृष्ट दृष्टांत और नकल करनेकेलिये सबसे बड़ा नमूना है और वह देव हमारी ही जीवात्मा है जब कि उसको निर्वाणकी प्राप्ति हो जाय. हम मनुष्यमें जो आत्मा हैं उसीको ही ईश्वर पहचानते हैं जो लोग हमको नास्तिक कहते हैं उनको बड़ी भूल हैं यथार्थमें उनकी निपट भ्रांति है. हम नास्तिक नहीं हैं हम ईश्वरको मानते हैं केवल ईश्वर के विषय में हमारा मंतव्य भौरोंसे भिन्न है ॥ महाशयो ! में उपर कहआया हूं कि इस गूढ प्रश्नका उत्तर ( कि मैं कौन हूं और यह संसार क्या है ? ) अनेक श्रेष्ठ पुरुषोंने अनेक काल और देशोंमे अनेक रीति से दिया है । ईश्वरके विषय में उनकी कल्पनायें भी भिन्न २ हैं कोई कहता है कि जब हम उसके पुत्र और प्रतिनिधियोंमे विश्वास करेंगे तब ही वह हमको मुक्ति देगा, कोई कहता है कि हम उसकी जितनी पूजा करेंगे उतना ही हमको फल मिलेगा, कोई उसका कुछ लक्षण बतलाता हैं और कोई कुछ | हम भी उसका अपना लक्षण बतलाते हैं और कहते हैं कि वह न तो कर्त्ता है और न हर्त्ता और न रक्षक न उसके पुत्र हैं और न प्रतिनिधि. वह सर्व शक्तिमान नित्य, सर्वज्ञ, और अनंत गुणवाला है वह ईश्वरीय आत्मा है. हम हरएक मनुष्यको स्वयं उसका ही गौरव दिखाते हैं यदि हमसे हरएक मनुष्य अपने स्वरूपका अनुभव करे और उसके अनुसार आचरण करे ७
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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