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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. ४७ हुआ हम जानते हैं कि वार्हस्पत्य लोकायत कह लात हैं यद्यपि उनका मत अब बिल्कुल नष्ट होगया है परन्तु यह सम्भव है कि मनभावना होनेके कारण उसको पुराने भारतवर्षमें सबने स्वीकार कर लिया हो । महाशयो! इस बातको सब जानते हैं कि पुराने भारतवर्षमें मनुष्य विद्याको कंठ याद रखते थे । उसका बहुतभाग नष्ट होगया है। वार्हस्पत्यसूत्र एक समयमें विद्यमानथे अब वे नष्ट होगये हैं और अन्य बहुत दर्शनोंके सूत्र नष्ट होगये हैं और इसी कारण हम उनके विषयमें कुछ नहीं जानते. पुराने भारतवर्षकी केवल वैदिकविद्या ही ऐसी है जिसका बहुतभाग सावधान ब्राह्मणोंने बचाये रक्खा परंतु यदि अन्य सम्प्रदायोंकी विद्या हमको नहीं मिलती है और ब्राह्मणांक ग्रंथामें उनका कभी २ कथन आनेके सिवाय हम उनक विषयमें और कुछ नहीं जानते हैं तो हमको यह अधिकार नहीं है कि प्राचीनसमयमें जितना उन सम्प्रदायोंका प्रचार था उसके विषय में हम अपनी ही कल्पनायें कर बठं । हम अपने विषयमें देखते है कि हमारे शास्त्र अशोकके समयसे पीछे लिखेगये हैं परन्त इसमें कुछ सन्देह नहीं कि हमारा विद्या उससे पहले विद्यमान थी जो कंठ याद था। जन अपने शास्त्रोंकी रक्षा करने में ब्राह्मणोंके तुल्य सावधान नहीं थे, इसकारण उनका प्राचीन विद्या बहुत नष्ट हो गई या यह भी संभव है कि हम उन शास्त्रोंको मालम करसके कि जिनका अभीतक पता नहीं लगा और जिनसे हमारा प्राचीन इतिहास प्रगट हो जाय परन्तु यह बात कि हमार शाम्र अशोकके पीछे बने वा लिखगये यह माननेकेलिये कोई हेतु नहीं है कि जैनियोंकी कोई विद्या नहीं थी जिससे यह शाम बन या इस बातको माननेके लिये भी कोई हेतु नहीं है कि उनका कोई प्राचीन इतिहास नहीं था। यह सम्भव है और जनशास्त्रोंके अनसार निश्चय है कि चौथ कालमें जी महावीर स्वामीके मोक्षके समय समाप्त हुवा जनमत जैसा अब है उससे बहुत ज्यादा प्रबल था ॥ अब मैं जैनियोंके मन्तव्य और उनकी फिलासफीका कुछ कथन करता हूं। जैनी नियोंका मानते हैं कि यह सृष्टि, अनादिसे है, इसका कोई कर्ता नहीं है और मन्तव्य इसमें लोक और अलोक हैं लोकमें उर्दुलोक वा स्वर्ग, मध्यलोक या पृथ्वी और पाताललोक या नरक है। इस लोकमें जीव और अनाव दो द्रव्य हैं. जीव छह प्रकारके हैं पृथ्वीकाय, अग्निकाय, वायुकाय, जलकाय, वनस्पतिकाय और त्रस अर्थात् चलने फिरनेवाले जीव । त्रसजीव हान्द्रिय (दां इन्द्रियवाल ) बांद्रिय (तीन इंद्रियवाले) चतुरिद्रिय ( चार इन्द्रियवाले) और पंचेंद्रिय (पांच इंद्रियवाले) होते हैं। पंचेंद्रिय जीवोंके दो भाग हैं, अर्थात् संज्ञी वा मनवाले जीव और असंज्ञी वा भनरहित जीव । इनमें मनुष्य
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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