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________________ पवित्र करने के लिये चेष्टा करने लग जाती है। इसी वास्ते सूत्र में लिखा है किश्रुत की आराधना करने से अज्ञान और क्लेश दोनों का ही नाश हो जाता है; क्योंकि-क्लेश का होना अज्ञानता का ही माहात्म्य है, जव अज्ञान नष्ट हो गया तव क्लेश साथ ही जाता रहा / अतएव सिद्ध हुआ कि-श्रुतभक्ति द्वारा उक्त कर्म के वन्धन से अनेक आत्माओं का कल्याण करके प्राणी मोक्ष-गमन कर लेता 20 नवचन प्रभावना-शास्त्र की प्रभावना करने से उक्त प्रकारका कर्मबंधन किया जा सकता है, परंच शास्त्रप्रभावना यथाशक्ति सत्पथ के उपदेश करने से ही हो सकती है। क्योंकि-जव भव्य आत्माओं को पुन पुनः शास्त्र पढ़ाया चा सुनाया जाता है, तब वे भव्यात्मा शास्त्र में कथन किये हुए सत्य पदार्थों का अपने शुद्ध हृदय में अनुभव करते है अर्थात् अनुप्रेक्षा करते हैं; और उनके हृदय में उस शास्त्र की प्रभावना बैठ जाती है। अतएव आलस्य वा प्रमाद को छोड़ कर केवल भन्यात्माओं को शास्त्र-विहित उपदेश सुना कर प्रवचनप्रभावना करनी चाहिए। यह वात अनिवार्य मानी जासकती है। कि-जो बात अपने हृदय में निश्चय कर बैठाई जावे; यावन्मात्र उसका फल होता है तावन्मात्र किसी अन्य वलवान् के आदेश के द्वारा कार्य किये जाने पर नहीं हो सकता। जैसे-एक हिंसक पुरुप हिंसा के फल को ठीक समझ कर हिंसा-कर्म का परित्याग करता है, और एक पुरुप संवत्सरी श्रादि पों में राजामा द्वारा उक्त कर्म से निवृत होता है। उन में यावन्मात्र फल स्वयं हिंसा के फल को जान कर त्यागने वाले को उपलब्ध हो सकता है तावन्मात्र फल जो राजाज्ञा द्वारा कुछ समय के लिये हिंसा से निवृत्त होता है, उस व्यक्ति को नहीं हो सकता / कारण कि- उसका अन्तःकरण स्वयं निवृत्त नहीं है / अतः शास्त्रों द्वारा हर एक पदार्थ का फलाफल जान कर उससे निवृत्ति करनी चाहिए / सो इस प्रकार का बोध शास्त्र सुनने से ही प्राप्त हो सकता है, इसी लिये शास्त्रों का पठनपाठन अावश्यकीय प्रतिपादन किया गया है / सच्ची प्रभावना इसी प्रकार से हो सकती है। यद्यपि अाधुनिक समय में अनेक प्रकार से प्रभावना करने की प्रथाएं प्रचलित हो रही हैं, तथापि वे प्रभावनाएं प्रभावना का जैसा फल होना चाहिए था उस प्रकार का फल देने में असमर्थ सिद्ध होती हैं। प्रवचनप्रभावना जिस प्रकार हो सके और जिस के माहात्म्य से जीव मोक्ष साधन के अधिकारी वन जाव, उस प्रभावना के द्वारा जीव तीर्थकर नाम गोत्र की उपार्जना करके फिर अनेक भव्यात्माओं को मोक्षाधिकारी बना कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है / जब जीव उक्त कारणों से तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का निवन्धन कर लेता है तब वह स्वर्गादि में जाकर
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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