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________________ ज्ञानग्रहण है। क्योंकि-जव नूतन 2 शान सीखता रहता है तब उसके आत्मा को एक प्रकार का आनन्द उत्पन्न होता रहता है, 'उस आनन्द के माहात्म्य से उसके आत्मा में सदैव समाधि बनी रहती है और चित्त उसका प्रसन्न रहता है यही कारण है कि वह उक्त कर्म के बन्धन के योग्य हो जाता है। क्योंकि-यावत्काल ज्ञान समाधि उत्पन्न नहीं की गई तावत्काल पर्यन्त अन्य समाधियों की आत्मा में उत्पत्ति मानना आकाश के कुसुमवत् ही सिद्ध होती है। अपितु जव शान समाधि की प्राप्ति हो जाती है तब अन्य समाधिएं सहज में ही प्रगट हो जाती हैं / अतएव शान समाधि के उत्पादन के लिये अपूर्वज्ञानग्रहण करना चाहिए, जिस से उक्त समाधि की प्राप्ति हो जावे तथा जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से तिमिर नष्ट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान रूपी तिमिर भी सहज में ही भाग जाता है / सो जब अज्ञान नष्ट हो गया तब आत्मा से समाधि उत्पन्न हो ही जाती है सो उक्त प्रकार की समाधि के लिये अपूर्व ज्ञान अवश्य ही सीखना चाहिए। 16 श्रुतभक्ति-श्रुतभक्ति करने से भी उक्त कर्म-निबंधन किया जा सकता है। क्योंकि-जब श्रुत की भक्ति की जायगीतब श्रात्मा में समाधि उत्पन्न हो जाती है, सो उस समाधि का फल कर्म-क्षय वा शुभ कर्मों का बंधन हो जाना माना जाता है। शव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ध्रुत भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए इलके उत्तर में कहा जाता है कि जिस प्रकार गुरुभक्ति की जाती है उसी प्रकार श्रुत-भक्ति होनी चाहिए। गुरु-भक्ति का मुख्योद्देश गुरु-बाशा पालन करना ही है, उसी प्रकार श्रुत की आज्ञा अनुसार धार्मिक चेष्टाएं करते रहना उसी का नाम श्रुत भक्ति है। क्योंकि-किसी नय की अपेक्षा श्रुत देवाधिदेव ही कहा जा सकता है। जैसे कि "प्रवचन और प्रवचनी" सूत्रों में श्रीभगवान् को प्रावचणी लिखा है, और उनकी वाणी को प्रवचन प्रतिपादन किया गया है; सो जव श्रीभगवान् की वाणी प्रवचन है, तव प्रवचन की आज्ञानुसार क्रियाकलाप करना वह सव भगवत् की आज्ञा पालन करना है। अतएव सिद्ध हुश्रा जिस प्रकार गुरु-भक्ति का मुख्योद्देश गुरु की आज्ञा पालन करना है ठीक उसी प्रकार श्री श्रुत की आज्ञानुसार क्रियाकांड करना उसी को श्रुत भक्ति कहा जा सकता है / और साथ ही जिस प्रकार श्रुत का अविनय न हो उसी प्रकार काम करना इसका यह मन्तव्य है, जव जनता के आगे प्रेम पूर्वक श्रुत का प्रदान किया जायगा तब यह अपने हितका अन्वेषण करती हुई श्रुत का वहुमान करने लगजाती है तथा उसके हृदय में श्रुत का परम महत्व बैठता जाता है जिससे उसका ध्यान पुनः 2 श्रुत के सुनने का हो जाता है। इतना ही नहीं किन्तु फिर वह श्रुत वाक्य को बड़े प्रेम के साथ अपने हृदय में स्थापन कर उसके कथनानुसार अपने जीवन को
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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