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________________ ( 293 ) और अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाले जीव का शुक्ललेश्या में परिणमन मानां गया है / लो उक्त पद लेश्याओं का पूर्ण विवरण प्रज्ञापन सूत्र के १७च लेश्या पद में बड़े विस्तार से कथन किया गया है वहां से देखना चाहिए। जीव पद लेश्याओं में ही परिणत होता है। इसी कारण से कमाँ का बंध जाव के प्रदेशों के साथ होजाता है। जव चतुर्दशगुण स्थानारूढ जीव होता है तव अलेश्यी होकर ही मोक्ष गमन करता है, पहली तीन अशुभ लेश्याएं है और तीन शुभ / अतएव अशुभ लेश्याओं से अन्तःकरण को शुद्ध कर शुभलेश्याओं में ही परिणत होना चाहिए ताकि जीव को धर्म की प्राप्ति हो। जिस प्रकार स्निग्ध पदार्थ से वस्तु का बंध होना निश्चित है, उसी प्रकार लेश्याओं द्वारा कर्मों का बंध होना स्वाभाविक बात है। अव सूत्रकार लेश्या के पश्चात् योगपरिणाम विपय कहते हैं जैसे कि जोग परिणामेणं भंते कतिविधे पं. 1 गोयमा ! तिविधे प.तं. मणजोगपरिणामे वयजोगपरिणामे कायजोगपरिणामे / भावार्थ हे भगवन् ! योगपरिणाम कितने प्रकार से वर्णन किया गया है ? हे गौतम ! योग परिणाम तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है जैसे कि-मनोयोगपरिणाम, ववनयोग परिणाम और काययोग परिणाम / इसका साराँश यह है कि-जव मन के द्वारा पदार्थों का निर्णय किया जाता है तब आत्मा का परिणाम मन. में होता है क्यों कि-श्रात्मा के परिणाम (परिणत ) होजाने से ही मन की स्फुरणा सिद्ध होती है / इसी कारण आत्मा के भाव हीयमान, वर्द्धमान तथा अवस्थित माने जाते हैं। शास्त्रों में मन की करण संज्ञा मानी गई है / करण वही होता है जो कर्त्ता की क्रिया मे सहायक चन सके। जब श्रात्मा मनोयोग में प्रवृत्त होता है तव मन के मुख्यतया चार भेद माने जाते हैं। जैसेकि-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग: मिश्रितमनोयोग और व्यवहारिक मनोयोग। आत्मा का लक्षण वीर्य और उपयोग माना गया है। सो जव आत्मा का बल वीर्य मनोयोग में जाता है तव मनोयोग की निष्पत्ति मानी जाती है। अपितु पंडित वीर्य वाल वीर्य और वाल-पंडितवीर्य, इस प्रकार के वीर्यों के कारण से मनोयोग के असंख्यात संकल्प (स्थान) कथन किए गये है। वे संकल्प शुभ और अशुभ दोनों प्रकार से प्रतिपादन किये गए हैं। मन एक प्रकार से सूक्ष्म चतुःप्रदशिक परमाणुओं का पिंड है / आत्मा के परिणत हो जाने से ही मनोयोग कहा जाता है। जिस प्रकार मनोयोग का वर्णन किया गया है ठीक इसी प्रकार वचनयोग और काययोग के विषय में भी जानना चाहिए / सारांश इतना ही है कि-तीन योगों में प्रान्मा का परिणाम प्रतिपादन
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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