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________________ लोभकषाय परिणाम / जब आत्मा क्रोध के आवेश में आता है तव क्रोध परिणाम वाला कहा जाता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभ के परिणाम विषय जानना चाहिए कारणकि जब तक आत्मा उक्त क्रियाओं में प्रवृत्त न हो जाए तव तक उस आत्मा को उक्त परिणाम युक्त नहीं कहा जाता / क्रोध, मान, माया और लोभ के तारतम्य अनेक भेद वर्णन किये गए हैं। सो यावत्काल पर्यन्त आत्मा उक्त क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है तावत्काल पर्यन्त आत्मा की छमस्थ संज्ञा बनी रहती है परन्तु जव आत्मा उक्त क्रियाओं से सर्वथा पृथग् हो जाता है तव सर्वज्ञ संज्ञा बन जाती है / अतएच कपायों में अात्मा ही परिणत होता है, जिसके कारण फिर इस आत्मा को संसार में नाना प्रकार के सुख वा दुःखों का अनुभव करना पड़ता है। अनंतानुबंधि आदि अनेक प्रकार के कषायों का सूत्र में वर्णन किया गया है सो जिज्ञासु जन इस से पृथक् ही रहें। क्योंकि-जव तक कषाय क्षय वा क्षयोपशम अथवा उपशम भाव में नहीं आते तव तक आत्मा धर्म के मार्ग से पृथक् ही रहता है। अव कषाय के अनन्तर सूत्रकार लेश्याविषय कहते हैं: लेस्सा परिणामेणं भंते कतिविधे प.? गोयमा छबिहे प.तं. कराहलेस्सा परिणामे नीललेस्सा परिणामे काउलेस्सा परिणामे तेश्रोलेस्सा परिणामे पम्हलेस्सा परिणामे सुक्कलेस्सा परिणामे। भावार्थ हे भगवन् ! लेश्यापरिणाम कितने प्रकार से वर्णन किया गया है ? हे गौतम ! छः प्रकार से लेश्या परिणाम प्रतिपादन किया है, जैसे कि -- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या. पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या परिणाम / जिस समय जीव के परिणाम अत्यन्त अशुभ और निर्दय होते हैं उस समय जीव कृष्णलेश्या परिणाम वाला कहा जाता है। जब उक्त परिणाम अत्यन्त अशुभ और अत्यन्त निर्दयता से कुछ न्यून अंक पर आते हैं तव जीव नील लेश्या परिणाम वाला कहा जाता है / परन्तु जिस जीव के भाव सदैव वक्र ही रहें और वह सदा मायाचारी बना रहे, असंवद्ध भाषण करने वाला हो, वह जीव कापोतलेश्या परिणाम वाला कहा जाता है / जो जीव विनयी और धर्म से सदा प्रेम रखने वाला तथा दृढ़ धर्मी होता है तब वह जीव तेजोलेश्या परिणाम वाला होता है / किन्तु जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ पतले होगये हैं और शान्तस्वभावी है वह जीव पद्मलेश्या परिणाम वाला होता है। सरागी हो वा वीतरागी किन्तु अत्यन्त निर्मल
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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