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________________ ( 256) अव यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जैनशास्त्र कर्म के फल से मोक्ष मानता है वा कर्म-क्षय से ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है किजैनमत कर्म-फल से मोक्ष नहीं मानता किंतु कर्मक्षय से मोक्ष मानता है क्योंकि-मोक्ष पद सादि अनंत पद माना गया है / यदि कर्मों के फल से मोक्षपद माना जाता तब तो मोक्षपद सादि सांत हो जाता क्योंकि ऐसा कोई भी कर्म नहीं है जिस का फल सादि अनंत हो / जब कर्म सादि सान्त है नव उनका फल सादि अनंत किस प्रकार माना जा सकता है ? अतएव यह स्वतः सिद्ध होगया है कि-कर्म क्षय का ही अपर नाम मोक्ष है। यदि ऐसे कहा जाय कि-जव आत्मा किसी समय भी अक्रिय नहीं हो सकता तो भला फिर अकर्मक किस प्रकार वन जायगा ? इस शंका का उत्तर यह है कि जिस प्रकार गीले इंधन के जलाने की अपेक्षा सूखा (शुष्क) इंधन शीघ्र भस्म होजाता है ठीक उसी प्रकार जव प्रथम चार धातिये संज्ञक कर्म क्षय हो जाते हैं फिर चार अघातिक संज्ञक कर्म सूखे इंधन के समान रह जाते हैं फिर उनके क्षय करने में विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता / जिस प्रकार जीर्ण वस्त्र के फाड़ने में विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता ठीक उसी - प्रकार चार अघातिक संज्ञक कर्मो के क्षय करने में विलम्व नहीं होता | क्योकि उस समय ध्यान अग्नि इतनी प्रचण्ड होती है कि-जिसके द्वारा महान् कर्मो की निर्जरा की जा सकती है। किन्तु वे कर्म तो जार्ण काट के समान अत्यन्त निर्वल और नाम मात्र ही शेष होते हैं / अतएव शनै 2 योगों का निरोध करते हुए जब आत्मा अक्रिय होता है तब उसी समय वे चारों कर्म क्षय होजाते हैं यदि कोई कहे कि-जव क्रियाओं द्वारा कर्म किया गया तव फिर उन कर्मों की घातिक संज्ञा और अघातिक संज्ञा क्यों बांधी जाती है तथा कर्मों की मूल प्रकृतियां तो उत्तर 148 प्रकृतियां क्योमानी गई है ? इस शंका का समाधान इस प्रकार किया जाता है कि वास्तव में कर्म शब्द एक ही है, परन्तु पुण्य और पाप की प्रकृतियों के देखने से शुभ और अशुभ मुख्य दो कर्म प्रतिपा. दन किये गए हैं। * - -फिर जिनासुओं के बोध के लिये कमाँ के अनेक भेद वर्णन किये गए हैं / परन्तु मूल भेद उनके आठ ही है अर्थात् जब कोई कर्म किया जाता है तव उस कर्म के परमाणु पाठ स्थानों पर विभक्त हो जाते हैं। जिस प्रकार एक ग्रास मुख में डाला हुआ शरीर में रहने वाले सप्त धातुओं में परिणत हो जाता है ठीक उसी प्रकार एक कर्म किया हुश्रा मूल प्रकृतियों वा उत्तर प्रकृतियों के रूप में परिणत हो जाता है। उन आठ मूल प्रकृतियों की 'घातिक' और 'अघातिक' संज्ञा दी गई है। जिन कर्मों के करने से आत्मा के निज गुणों पर
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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