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________________ ( 160 ) अपने मनकी इच्छा पूर्ति करने के लिये वेदान्ती बन बैठते हैं। जिनका मुख्य सिद्धान्त “एको ब्रह्म द्वितीयो नस्ति" जगत् में एक ब्रह्म ही है और कोई दूसरा पदार्थ नहीं / अतएव विषयादि कुकृत्य करने में कोई दोष नहीं है। क्योंकि-मायामय जगत् है, ब्रह्म सत् है, परंच माया असत् है, जब माया असत् सिद्ध होती है, तो फिर विषयादि कृत्यों के प्रासेवन करने में किस प्रकार दोष आसकता है ? अतएव स्त्री और पुरुष का परस्पर मिलना ही ब्रह्म की एकता है, इस प्रकार कुहेतुओं से प्रायः भद्र जीवों को अपने अनुसार करके विषयानन्दी वनकर ब्रह्मवादी कहलाते हुए धर्मावतार बन रहे हैं। तात्पर्य यह है कि शब्द, रूप, गंध, रस, और स्पर्श, इन के वशीभूत होकर नाना प्रकार के कुहेतुओं से लोगों को समझा कर अपने मन की वासना को शान्त करते है। अपना मन्तव्य सिद्ध करने के लिये किसीने तो योग का श्राश्रय लिया हुआ है, और किसी ने ब्रह्म का, और किसी ने ईश्वर का, तथा किसी ने देवी वा देवताओं का / वास्तव में भाव अपने स्वार्थसिद्धि के ही होते हैं। जिस प्रकार वेदान्ती अपना काम सिद्ध करते हैं, उसी प्रकार वामी, गुलाब दासिये इत्यादि अनेक मत धारी अपने इन्द्रिय-सुखों के वशीभूत होकर बाहरी आडवर धारण कर अपने आप को धर्मात्मा कहला रहे है। जिसका परिणाम-धर्मोन्नति वा देशोन्नति के स्थान पर धर्मावनति / और देशावनति हो रहा है। सो यह सव पाखंड धर्म ही है। क्योंकि जहां पर सम्यग् ज्ञान दर्शन और चरित्र नहीं है, वहां पर पाखंड धर्म ही होता है। तथा पाखंडधर्म का मुख्य प्रयोजन यही होता है कि-वाहिर के आडम्बर से बहुतसे भद्र जीवों को छला जाए, और अपने मनकी वासनाओं की पूर्ति की जाए / जैसे कि वर्तमान काल में बहुत से धर्म के नाम पर श्राडम्बर रच कर अपने मन के भावों की पूर्ति कर रहे हैं। ५कुलधर्म-उग्रादि कुलो का जो प्राचार चला रहा है, उसाचार में यदि कोई त्रुटि उत्पन्न होगई हो, तो कुल स्थविरों का कर्तव्य है किउस बुटि को दूर करें। जैसे कि जिन कुलों का स्वभाव से यह धर्म होगया है कि-मांसभक्षण नहीं करना, सुरापान नहीं करना, आखेटक कर्म नहीं करना तथा परस्त्रीगमन वा वेश्यागमन इत्यादि कुकर्म नहीं करने / यदि उन कुलों में कोई व्यक्ति स्वच्छन्दाचारी होजावे तो उसे योग्यता पूर्वक शिक्षित करना कुलस्थविरों का कर्तव्य है / आगे के लिये वे कुलस्थविर इस प्रकार के नियम निर्णीत करें, जिससे अन्य कोई व्यक्ति फिर स्वच्छन्दाचारी न बनसके। जिस प्रकार लौकिक पक्ष में कुलधर्म माना जाता है, ठीक उसी प्रकार लोकोत्तर पक्ष में भी कुलधर्म माना गया है / जैसेकि
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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