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________________ को राष्ट्रीय स्थविर भली प्रकार विचारा करते हैं। 4 पाखंडधर्म-जिन कार्यों में बाहरी आडम्बर तो विशेष हो, परन्तु धर्म का अंश सर्वथा न पायाजाय उसीको पाखंडधर्म कहते हैं। जैसे कि-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चरित्र का तो लेशमात्र भी न हो, परन्तु कायकष्ट तथा संन्यासी होकर हस्ती की सवारी, डेरा, तम्बू, वाग, वगीचे,आखाड़े आदि की संयोजना करनी तथा सहस्रों वा लाखों रूपयों पर अधिकार रख कर परिव्राजकाचार्य वा महंत तथा हंस परमहंस बन बैठना, ये सब उक्त क्रियाएँ मुनि धर्म से रहित करने वाली होती हैं। क्योंकि-ये ही उपाधियां तो गृहस्थाश्रम में थीं, फिर जब संन्यास धारण कर लिया तव भी अगर धन, भूमि और स्त्रियों की उपाधि पीछे लगी रही, तो चतुर्थाश्रम धारण करने की आवश्यकता ही क्या थी? शोक से लिखना पड़ता है ! यह आर्यभूमि पूर्व काल में ऋषि महर्पियों से सुशोभित होरही थी, परन्तु आजकल प्रायः इस भूमि में उक्त पदो की केवल संज्ञाएँ मात्र रहगई हैं, और तो क्या कोई भी कुकृत्य ऐसा नहीं जो वे नामधारी मुनि (साधु) नहीं करते, अपितु सभी कुकृत्य वे कर बैठते हैं। न्यायालयों में उनके झगड़े विद्यमान रहते हैं, राजकीय दण्ड वे भोगते हैं, भक्ष्य अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण करने में उनका कोई भी विवेक नही, यावन्मात्र मादक द्रव्य है, प्रायः उनकी वे लोग आनन्द पूर्वक सेवन करते हैं। फिर भी वे प्रास्तिको के शिरोमाण बनने का साहस रखते हैं, धर्मात्मा चनने का लोगों कोविज्ञापन पत्र देते रहते हैं अर्थात्-एवं विधकुकृत्य करते हुए भी वेधर्मात्मा कहाते हैं। अव वतलाइये यह पाखंडधर्म नहीं है तो और क्या है? जिस प्रकार संन्यासी लोग क्रिया से पतित होरहे हैं, उसी प्रकार उदासी वैरागी निर्मले ओघड़े पोप आदि लोग भी क्रिया का प्रायः नाम हीभूल गये हैं। देशों में धर्मोन्नति केस्थान परवे लोग धर्म को अधोगामी वनारहे हैं। क्योंकि उक्त नाम धारियों की संगति से प्रायः धनी लोग व्यभिचार करना सीख जाते हैं, जिन्हें कोई व्यसन न लगाहो वे लोग भी उक्त महात्मायों की संगति से व्यसनसेवी बन जाते हैं। जैसे कि अगर कोई भद्र पुरुष इन के डेरे आदि स्थानों में जाता है तो उस भक्त को भांग चरस आदि का स्वभाव तो स्वाभाविकता से पड़े ही जाता है। क्योंकि-प्रायः शिष्य सदा गुरु का अनुकरण करने वाला ही होता है। जव वे अपने गुरुओं की सत्कृपा से व्यसनी बन जाते हैं तव उनको धनके संग्रह करने की अत्यन्त उत्कट इच्छा होजाती है। परन्तु वे कोई काम करना नहीं चाहते जिससे उनको फिर जूए और चौर्य कर्म का सहारा लेना पड़ता है / जव वे उक्त क्रियाओं में लगगए तो फिर कौन सा दुष्कृत्य है जो उनको सेवन न करना पड़े। अतःये सव पाखंड धर्म है तथा आजकल बहुत सी आत्माएं
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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