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________________ ( 146 ) अर्थ-चे स्थविर भगवान् जैनसिद्धान्त से पूर्ण परिचित थे, तथा वे स्वमत और परमत के पूर्णवेत्ता थे। उन्होंने पुनः पुनः अभ्यास करने से आत्मवाद का परम परिचय प्राप्त करलिया था जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने नाम को किसी दशा में भी विस्मृत नहीं करता और भत्तहस्ती आनन्दपूर्वक एक सुन्दर श्राराम (वाग वा उद्यान) में क्रीड़ा करता है, ठीक उसी प्रकार आत्मवाद को अवगत करके वे स्थविर भगवान् श्रात्मवाद में रमण करते थे। उनके प्रश्नोत्तर में किसी को तर्क करने का साहस नही होता था, क्योंकि प्रश्नोत्तर युक्तियुक्त होने से वादी को किसी प्रकार से भी उनमें आक्षप करने के लिये छिद्र नहीं मिलता था। जिस प्रकार एक धनाढथ का रत्नों का करंडिया (डव्या ) होता है जिसकी सहायता से वह व्यापारादि क्रियाएं कर सकता है, ठीक उसी प्रकार शान, दर्शन और चरित्ररुपी रत्न करंडियों को वे धारण करने वाले तथा कुत्रिकापण (हट्ट) के समान थे / जिस प्रकार देवाधिष्ठित हट्ट से सर्व प्रकार की वस्तु उपलब्ध हो सकती है ठीक उसी प्रकार उन स्थविर भगवन्तों से सर्व प्रकार के ज्ञानादि पदार्थों की प्राप्ति होती थी तथा सर्व प्रकार के प्रश्नों के उत्तर जिज्ञासु जनों को उपलब्ध होते थे / इसी कारण वे परवादी का मान के मर्दन करने वाले तथा अकाट्य युक्तियों से स्वसिद्धान्त को सिद्ध करने वाले थे। द्वादशांग वाणी तथा समस्त गुणपिटक के धरने वाले, अर्थात् जिस प्रकार गृहस्थ लोगों का सर्व बहुमूल्य पदार्थ पिटक में रहा करता है ठीक उसी प्रकार समस्त श्रुतज्ञान उनमें ठहरा हुआ है , अतः वे द्वादशाङ्ग प्राचार्य के पिटक समान है। इसी लिए लिखा है कि-यह द्वादशाङ्ग श्रत के पिटक हैं। वे स्थविर भगवान् समस्त गुण पिटक,सर्व प्रकार के अक्षर सन्निपात के वेत्ता थे। क्योंकिसर्व प्रकार का अक्षरज्ञान शब्दागम (व्याकरण) द्वारा ही हो सकता है इतना ही नहीं किन्तु-स्वभाषा चल से सर्व भाषाओं मे बातचीत करने में शक्त थे / आर्य अनार्य देवभाषा इत्यादि समस्त भाषाओं के पूर्ण विद्वान् होने से वे जिन भगवान् तो नहीं किन्तु जिन भगवान्वत् यथार्थ पदार्थों का वर्णन करने वाले थे। ऐसी शक्ति होने पर भी संयम और तप द्वारा आत्मा की शुद्धि करते हुए वे स्थविर भगवान् श्री भगवान के साथ विचरते थे। इस सूत्र से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि यावत्काल पर्यन्त आत्मा शान संपन्न नहीं होता तावत्काल पर्यन्त कोई भी संयम क्रियाओं में रमण नहीं कर सकता / क्योंकि-जव शान द्वारा पदार्थों का स्वरूप भली प्रकार जान लिया जाता है तभी हेय-(त्यागने योग्य) ज्ञेय-(जानने योग्य) वा उपादेय-(ग्रहण करने योग्य) पदार्थों का यथावत् शान हो जाने के पश्चात्
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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