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________________ 2 सूत्रकृताङ्ग सूत्र-इस सूत्र के दोश्रुतस्कन्ध हैं / प्रथम श्रुत के 16 अध्ययन हैं / द्वितीय श्रुतस्कंधके सात अध्ययन हैं--और 33 इस सूत्रके उद्देश हैं / इसमें इस लोक और अलोक की सूचना है / इतनाही नहीं किन्तु जैनमत के स्याद्वाद मतानुसार जीव वा अजीव की बड़ी विस्तार से व्याख्या की गई है। साथ ही परमत के मान हुए अनेक मतोंका दिग्दर्शन कराया गया है। एवं उन मतों में जो त्रुटिये हैं उनका भी दिग्दर्शन कराया गया है / अन्त में निर्वाण प्राप्ति के लिये पंडित पुरुषार्थ करना चाहिए, इस विषय का विषद उपदेश किया गया है / 36 सहस्र (36000 ) इस सूत्र के पद हैं इस सूत्र का उपांग राजप्रश्नीय सूत्र है। इस सूत्रमें महाराज प्रदेशी के माने हुए नारितक मत का स्वरूप कथन किया गया है और साथ ही भगवान् श्रीपार्श्वनाथ जी के शिष्यानुशिष्य श्री केशीकुमार श्रमण के साथ जो महाराज प्रदेशी के नास्तिकमत सम्वन्धी प्रश्नोत्तर हुए हैं वे भी दिखलाए गए हैं। तदनन्तर महाराज प्रदेशी ने जब अास्तिकमत ग्रहण कर लिया और फिर सम्यग्तया श्रावक धर्म का पालन किया उसका फलादेश भी भली प्रकार से दिखलाया गया है। जैनमत वा परमतके स्वरूप को जानने के लिये मुमुक्षु जनों के हितार्थ यह सूत्र अत्यन्त उपयोगी है / 3 स्थानाङ्ग सूत्र-इस सूत्र में पदार्थों के भावोंका दिग्दर्शन करायागया है। एक स्थान से लेकर दश स्थानतक प्रत्येक पदार्थ के खरूप को प्रतिपादन किया गया है। साथ ही सामान्य वा विशेष तथा पक्ष प्रतिपक्ष पदार्थों का स्वरूप दिखलाया गया है / संसार में यावन्मात्र पदार्थ हैं वे प्रतिपक्षी पदार्थों के होने से ही अपनी सत्यता सिद्ध करते हैं यथा-यदि जीव पदार्थ है तव उसी का प्रतिपक्ष अजीव पदार्थ भी है। अजीव पदार्थ के मानने परही जीव पदार्थ की सिद्धि की जासकेगी, जिस प्रकार किसीने कहा कि-यह बड़ा विद्वान है, ऐसा तभी कहा जायगा जब कहनेवालेको मूल्का भी वोध होगा। इसी प्रकार जब किसी ने कहा कि अमुक पुरुष वड़ा धनी है तव विचारणीय विषय यह है कि धनी तभी कहा जासकेगा जब कहने वाले को निधन का भी शान होगा / इसी क्रमसे प्रत्येक पदार्थ पक्ष और प्रतिपक्ष के कारण अपनी सत्यता रखता है जैसेकि-जीव-अजीव, लोक-अलोक पुण्य-पाप, आश्रव-संवर वेदना-निर्जरा, वंध-मोक्ष, तथा त्रस-स्थावर सिद्ध और ससार, इत्यादि क्रमसे दश स्थानोंतक पदार्थों का इस सूत्र में वर्णन किया गया है। साथ ही स्वमत, परमत, कूट, नदी हृदादि का बड़ी विचिन रचना से विवेचन किया गयाहै / इस सूत्र का केवल
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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