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________________ १६९ विका यह होना स्वाभाविक बात है । जैसे कि एकतो युवा पुरुष की मृत्यु हुई और दूसरे एक ९० वा. सौ वर्ष के पुरुष की खुई। पतु मृत्युधर्म समान होने पर भी अवस्था के , कारण से नियोग में विभिन्नता अनुश्य देसी जाती है । Ty लोक से लिखना पडता है कि उस विभिन्नताने लौकिक मैं और ही रूप धारण कर लिया है, जैसे कि - युवा की, मृत्यु समय अन्य नियोग और वृद्ध की मृत्यु समय अत्यत प्रमोद +3 ज्ञ ५ ना ही नहीं किंतु उपहास्यादि के वशीभूत होते हुए उम इ के गर की दुर्दशा देखने में आती है । कोई छज्ज (सूप 1 फूटा ढोल बजाता है, कोई, असभ्य गीत गाता है, कोई ! ★ शरम नाचता है इत्यादि किया करते हुए उस वृद्ध वो बड़े कष्टी के साथ मृत्यु सस्कार के स्थान तक पहुंचाते हैं । फिर अभि-सरकार के समय मे भी उसके शव की दुर्गति की जाती है तो भला बिचारने की बात है कि क्या ये नियाए आर्य पुरुषों के लिये लज्जास्पद नहीं है ? अवश्यमेव हैं । तथा क्या इन क्रियाओं के करने से कोई योग्यता पाई जाती | कदापि नहीं | f ६ । H 1 す 4 T "अरण्य इस प्रकार की क्रियाओं का परिहार अवश्यमेन के नेताओं को करने योग्य है । तथा " मृत्यु - सरकार के रात बहुत मे गणों में प्रथा है कि ये जीमनवार (मौसर ) करते ई। कई स्थानों पर निर्धन परिवार को केवल गण के भय से उक्त क्रिया करनी पडती हैं और वे दोनों प्रकार से दुसित
SR No.010865
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Swarup Library
Publication Year
Total Pages210
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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