SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 651
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम अध्याय ।। ६१९ छत्तीस कुली राजपूतों ने तत्काल ही दयामूल धर्म का अङ्गीकार किया, उस छत्तीस कुली में से जो २ राजन्य कुल वाले थे उन सब का नाम इस प्राचीन छप्पय छन्द से जाना जा सकता है:छप्पय-वार्द्धमान तणे पछै वरष बावन पद लीयो। श्री रतन प्रभ सूरि नाम तासु सत गुरु व्रत दीयो॥ भीनमाल हुँ ऊठिया जाय ओसियाँ बसाणा। क्षत्रि हुआ शाख अठारा उटै ओसवाल कहाणा ॥ इक लाख चौरासी सहस घर राजकुली प्रतिबोधिया। श्री रतन प्रभ ओस्याँ नगर ओसवाल जिण दिन किया ॥१॥ जीर्णोद्धार में अत्यन्त प्रयास (परिश्रम ) किया है अर्थात् अनुमान से पॉच सात हजार रुपये अपनी तरफ से लगाये हैं तथा अपने परिचित श्रीमानों से कह सुन कर अनुमान से पचास हजार रुपये उक्त महोदय ने अन्य भी लगवाये हैं, तात्पर्य यह है कि-उक्त महोदय के प्रशसनीय उद्योग से उक्त कार्य में करीब साठ हजार रुपये लग चुके है तथा वहाँ का सर्व प्रवन्ध भी उक्त महोदय ने प्रशसा के योग्य कर दिया है इस शुभ कार्य के, लिये उक्त महोदय को जितना धन्यवाद दिया जावे वह थोडा है क्योंकि मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाना बहुत ही पुण्यस्वरूप कार्य है, देखो! जैनशास्त्रकारों ने नवीन मन्दिर के वनवाने की अपेक्षा प्राचीन मन्दिर के जीर्णोद्धार का भाठगुणा फल कहा है (यथा च-नवीनजिनगेहस्य, विधाने यत्फल भवेत् ॥ तस्मादष्टगुण पुण्य, जीर्णोद्धारेण जायते ॥ १ ॥ इस का अर्थ स्पष्ट ही है) परन्तु महाशोक का विषय है कि-वर्तमान काल के श्रीमान् लोग अपने नाम की प्रसिद्धि के लिये नगर में जिनालयों छ होते हुए भी नवीन जिनालयों को वनवाते हैं परन्तु प्राचीन जिनालयों के उद्वार की तरफ विलकुल प्यान नहीं देते हैं, इस का कारण केवल यही विचार में आता है कि-उन का उद्धार करवाने से उन के नाम की प्रसिद्धि नहीं होती है-वलिहारी है ऐसे विचार और बुद्धि की ! हम से पुन. यह कहे विना नहीं रहा जाता है कि-धन्य है श्रीमान् श्रीफूलचन्द जी गोलेच्छा को कि जिन्हों ने व्यर्थ नामवरी की ओर तनिक भी ध्यान न देकर सच्चे सुयश तथा अखण्ड धर्म के उपार्जन के लिये ओसिगॉ में श्रीमहावीर खामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करा के "ओसवाल वशोत्पत्तिस्थान" को देदीप्यमान किया। __ हम श्रीमान् श्रीमानमल जी कोचर महोदय को भी इस प्रसग में धन्यवाद दिये विना नहीं रह सकते है कि-जिन्हों ने नाजिम तथा तहसीलदार के पद पर स्थित होने के समय वीकानेरराज्यान्तर्गत सर्दारशहर, लूणकरणसर, कालू, भादरा तथा सूरतगढ आदि स्थानो मे अत्यन्त परिश्रम कर अनेक जिनालयो का जीर्णोद्धार करवा कर सच्चे पुण्य का उपार्जन किया ॥ १-बहुत से लोग ओसवाल वश के स्थापित होने का सवत् वीया २ वाइसा २२ कहते हैं, सो इस छन्द से वीया वाइसा सवत् गलत है, क्योंकि श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से ७० वर्ष पीछे ओसवालवश की स्थापना हुई है, जिस को प्रमाणसहित लिस ही चुके हैं ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy