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________________ ६१८ नैनसम्पदामशिक्षा । कुटुमी भौर सगे सम्बपी मावि सय लोग प्रेम के साथ इस क्यामूठ धर्म का प्रहम प्रे" राबा के इस वरन को सुन कर भीरसमम सरि महाराज पोते कि-"निस्सन्देह (नेस) ये गेग मामें हम उनके साम धामार्य करेंगे, क्योंकि हे नरेन्द्र | ससार में ऐसा कोई मत नहीं हे खो कि दयामूळ अर्थात् माहिसापपान इस बिनपर्म को शास्त्रार्य के द्वारा हा सके, उस में मी मग व्यभिचारमधान यह ऋणपन्थी मत तो कोई चीन ही नहीं है यह मस तो महिसामपान पर्मरूपी सूर्य के सामने सपोववत् (जुगुन के समान) है, फिर मग यह मस उस धर्म के आगे फन ठहर सकता है पर्यात् कभी नहीं ठहर सकता है, निस्सन्देह उक मवारसम्नी भावे हम उनके साथ शाबार्य करने को तैयार है" गुम्न बी के इस वपन को सुनकर रामा ने अपने कुटुम्मी और सगे सम्माधियों से कहा कि "जाकर अपने गुरु को मुग लामो" राजा की माझा पाकर वक्ष पीस मुस्म २ मनुष्य गये मौर मपने मस के नेता से कहा कि-"मैनाचार्य अपने मत ने न्ममिचार प्रधान समा बहुत ही बुरा बतगते हैं और महिंसामून पर्म को सम से उपम नवा र उसी का स्थापन करते हैं, इस सिमे माप रुपा कर उन से शामा करने के लिये शीम परिष" उन लोगों के इस पाप को सुन कर मयपान किये हुए तथा उसके नशे म उन्मच उस मत का नेता भीरसमम परि महाराज के पास आया परन्तु पाठगण मान सकते हैं रिसर्य के सामने मन्मकार से ठहर सकता है। बस दमामूल पर्मरूसी सूर्य के सामने उस का मनानतिमिर (अनानरूपी अमेरा) दूर हो गया म त यह शामार्य में हार गमा तभा परम गजित हुआ, सत्य है कि-ठा का मोर रात्रि में ही रहता है किन्तु अब सूर्योदय होता है तब यह नेत्रों से मी नहीं देख सकता है, अब क्या भा-मीरसमम सरि का उपदेश मोर वानरूपी सूर्य का उदय भासिमापान में हो गया भोर वहाँ का अवानरूपी सब भन्मकार दूर हो गया भर्थात् उसी समय रामा उपसरे पवार ने हाथ मोड़ पर सम्पफ्ससहित भाव से बारह मतों का ग्रहण किया मौर दर मोरपणम्प पीहेमाबाग महारान सबा भीभा सरिकी समाये हुए सेसत में बना परम्परा भाषा पानने पाकिसे ये प्रम्ब सनरी मरे मत भाषा पाने कम्म र र सिप रंगना भीगिरानमनी मुनिम्न सहानुभा रहार माम प्रय रेपाना चाहिये जिस प्रवर्मन हम इसी प्रबोसो अभाव में बोर में रपुर सरप्राय प्रधमात्र गबन पामे व उपमेयी १० -पना गरेकार ने सामूम धर्म के माप परने बार भीमहार सामी प्रमभिर भोखिमों में बरपाया मोर उस प्रविश परमप्रभ मूर मारनेर पो पर मर भाभी भारियों में रिपमान (म्प्रेसर पर पाच समर व गाने परपर मनर शिरपरमात जान ऐसा भोमिया में भारपोरेसने से पम भारिपन परत बही मा मन मोशी (मार मणपोवामान् और मान +II
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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