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________________ ७० ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः था । वह मास के क्षीण होने से तथा अस्थियों के ऊपर उठ जाने से इतना भयङ्कर प्रतीत होता था जैसे ऊंचे २ नदी के तट हों । पेट बिलकुल मूख गया । उसमे से यकृत और प्लीहा भी क्षीण हो गये थे । अतः वह स्वभावतः पीठ के साथ मिल गया था । पसलियों पर का भी मांस बिलकुल सूख गया था और एक २ साफ २ गिनी जा सकती थी । यही हाल पीठ के उन्नत प्रदेशों का भी था । वे भी रुद्राक्ष - माला के दानों के समान सूत्र में पिरोए हुए जैसे अलग २ गिने जा सकते थे । उर के प्रदेश ऐसे दिग्वाई देते थे, जैसी गङ्गा की तरङ्गे हों । भुजाएँ सूख कर सूखे हुए सॉप के समान हो गई थीं। हाथ अपने वश मे नहीं थे और घोड़े की ढीली लगाम के समान अपने आप ही इधर-उधर हिलते रहते थे । शिर की स्थिरता भी लुप्त हो गई थी । वह शक्ति से हीन हो कर कम्पन-वायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान कांपता ही रहता था । इस अत्युग्र तप के कारण से जो मुख कभी खिले हुए कमल के समान लहलहाता था अब मुरझा गया था। ओंठ सूखने के कारण नहीं के समान हो गये थे। इससे मुख फूटे हुए घडे के मुख के समान विकराल हो गया था । उनकी दोनों आंखे बिलकुल भीतर धँस गई थीं । शारीरिक बल बिलकुल शिथिल हो गया था और केवल जीव-शक्ति से ही चलते थे अथवा खड़े होते थे । इस प्रकार सर्वथा दुर्बल होने के कारण उनकी यह दशा हो गई थी कि किसी प्रकार की बात-चीत करने मे मे भी उनको स्वयं खेद प्रतीत होता था और जब कुछ कहते भी थे तो अत्यन्त कट के साथ । शरीर साधारणतः इस प्रकार खचपचा गया था कि जब वे चलते थे तो अस्थियों मे परस्पर रगड लगने के कारण चलती हुई कोयलों की गाडी के समान शब्द उत्पन्न होने लगता था । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्कन्दक का शरीर तप के कारण क्षीण हो गया था । इसी प्रकार धन्य अनगार का शरीर भी हो गया था । किन्तु शरीर क्षीण होने पर भी उनकी आत्मिक- दीप्ति वढ रही थी और वे इस प्रकार दिखाई देते थे जैसे भस्म से आच्छादित अग्नि होती है । उनका आत्मा तप से, तेज से और इनसे उत्पन्न कान्ति से अलौकिक सुन्दरता धारण कर रहा था । इस सूत्र में कुछ एक पदों की व्याख्या हमे आवश्यक प्रतीत होती है । अतः पाठकों की सुविधा के लिए हम उनकी वृत्तिकार ने जो व्याख्या की है उसको यहां देते हैं: :-- ॐ
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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