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________________ वतमान विज्ञान वरदान या अभिशाप ? 81 जव मनुष्य में स्वार्य-मूलक जीवन-यापन की प्रवत्ति विकास पाती है, तव वह वास्तविक जीवन का आनन्दानुभव नहीं कर सकता वह स्वय यत्र का एक अंग बन जाता है, वह उदर ज्वाला के शमनाथ कमशील रहता है, समाज कल्याण की व्यापक भावना का उदय उसक हृदय मे नही हो पाता--जीवन की सोद्देश्यता समाप्त हो जाती है। उद्देश्य हीन जीवन निरथक है। अमेरिका को ही देखें कि वहाँ इतनी अधिक मात्राम गेहूँ उत्पन्न होता है कि कभी-कभी तो ऐसी महत्त्वपूण खाद्य-सामग्री-अ या इसकी पावश्यकता रहने के बावजूद भी जलाकर नष्ट कर दी जाती है । चीजो का मानवकृत अभाव, अधिक मुनाफा खोरी, अकिचना का रक्तशोषण ये कुछ यत्रवाद के परिणाम है । तात्पय है कि विज्ञान का माग उतना सीधा और पादरा प्रेरक नही, जितना कि इसके अनुयायियान ममझा था। सुख-समृद्धि के विकाम म विनान का योग रहा पर इससे मानव की अतरात्मा के विकास का माग अवरुद्ध हो गया। यात्म विश्वास व पर मगल की कामना की दिशाएं सीमित हो गई। इत पूर्व जो स्वच्छता, शालीनता, सदाचार, सयम, त्याग आदि भावनाएं विकसित रूप में जीवन के अन्तस्तल को स्पा करती भी वह स्थिति नाज कहां है कृषिमता,अयाय,अमगल, अपवित्रता और अनतिक्ता का सवत्र साम्राज्य है । अाज का मानव कृत्रिम दास बना हुया है।बहन को तो वह बहुत कुछ सोचता है, पर उसका हृदय बहुत सकुचित है। लाभापेक्षया हानि को सम्भावना जही अधिक हो उस वस्तु को अप 'गाने में कोई वुद्धिमत्ता नहीं है । विनान से लाभ है, तो उससे हानियां भी कम नही । उदाहरणाथ-विद्युत-शक्ति को ही लें,जहां वह भौतिक विकास का माग प्रशस्त करती है वहां प्राण धातिनी भी है। तनिक प्रमाद भी जीवन को समाप्त कर सकता है । मानव सहारख तय्या का प्रयोग निर्माण के लिए बहुत कम हापा रहा है। एक विक्टारियन कवि के विचार से यह ठीक है मि "विज्ञान से नान की वद्धि होती है किन्तु भावुर-स्फूर्ति नष्ट हो जाती है।" वस्तुत विज्ञान से भावुकतारा क्या सम्बप भावुक्ता हृदय-परक है तो विनान मस्तिष्क परख । नान के भण्डारा को पान की अपेक्षा उनक समुचित उपयोग की पार गतिमान होना अधिर बुद्धिमत्तापूण काय है। वौद्धिव-समृद्धिको प्रपक्षा नतिक समृद्धि प्रधिर सुसदायक है, जिससे
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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