SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राधुनिक विज्ञान और ग्रहिसा ग्रामतौर पर व्योमयान होते थे । रामायण में भी ऐसा ही एक उल्लेख उपलब्ध होता है । सुना जाता है कि अभी कुछ दिन पूर्व संस्कृत भाषा का एक ग्रन्थ मिला है, जिनमें व्योमयान बनाने की विधि का वर्णन किया गया हे । इन सब बातों से, इस विचार को बल मिलता है कि किसी जमाने में भारतीय विद्याधर' (वैज्ञानिक) व्योमयानो का प्रयोग करते थे । वस्तुतः यह विपय ग्रन्वेषण की अपेक्षा रखता है। कुछ भी हो, प्राज के मानव ने वायुयानो के चमत्कार को प्रत्यक्ष देख लिया है। श्रव वह स्वयं पक्षी की भाँति ग्राकाश में उड़ लेता है। एक बड़े विमान में 80 तक यात्री बैठ सकते है, चालक अलग। विमानों में गीचालय, भोजनगृह यादि की सुन्दर व्यवस्था रहती है | 1800 मील प्रति घण्टा गति करने वाले वायुयान भी बनने लगे है । अतएव प्रत्यधिक लम्बी उडाने भी श्रव कठिन नहीं रह गई हैं। कुछ ही घण्टो में समग्र विश्व का भ्रमण करने की योजना भी बन रही है। यही नहीं, यूरोपीय देशो में प्रोनिथेप्टर नामक एक ऐसा यत्र भी वन रहा है, जिसकी सहायता से प्लास्टिक के पंख लगाकर मनुष्य स्वतः चिड़िया की तरह उड़ सकेगा, उसके लिए न किसी हवाई अड्डे की आवश्यकता होगी और न किसी टीमटाम की । 50 ग्राज के दैत्याकार विराट् श्रीर ग्रद्द्भुत् क्षमताशाली यंत्रो ने मानवीय जीवन मे एक भूचाल सा उत्पन्न कर दिया है। किसी बड़े कारखाने में जाकर ग्राप देखेंगे तो रोमाच हो उठेगा, ऐसा अनुभव होने लगेगा, मानो मनुष्य ने भूतो को ही वश में कर लिया है। 1 आज का मनुष्य धरती और ग्राकाश में ही नहीं वरन् समुद्र के वक्षस्थल पर भी प्रतिहत गति से मछलियों की भाँति विचरण कर रहा है । आधुनिक जल जहाज पुरानी समुद्री नौकाओ की तरह हवा और लहरो पर निर्भर नही है और न तूफानो से ही उन्हें खतरा है । ये जहाज इतने विशाल होते है कि उनके भीतर छोटा-मोटा नगर समा सकता है । इनमे एक साथ हजारो लोग यात्रा करते हैं। सहवाधिक टन की सामग्री भी ढोई जा मकती है । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय में भारत से इगलैण्ड पहुँचने मे एक वर्ष लगता था जब कि ग्राज तीन सप्ताह पर्याप्त है । अन्तर्प्रान्तीय व्यापार, वाणिज्य सम्बन्वी वस्तुएँ प्रचुर परिमाण मे जलयानो द्वारा सरलता से एक
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy