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________________ घम का स्वरुप 35 पडता है या स्वय हो जाता है । घम के प्राचारमूलक विकास को देखते हुए कहाा पडता है कि समय-ममय पर एक ही घम ने वाह्य स्थिति मे बहुत-कुछ परिवतन इमलिए किया कि उसे जीवित रहना था। सामाजिन परिस्थितियो के आधार पर अधिकागत' पनपन वाले तत्वो मे परिवतन पाना स्वाभाविक है। परिवतन ही इससी मजीवनी शक्ति है । जब हम अातु के अनुसार वस्त्र परिवतन कर मूल म्प मे अपनी देह का रक्षण कर सकते हैं तो व्यापक रूप में परिवतिन परिस्थितिया मे भी बाह्य व्यवहार मे परि वतन कर अपनी मूल वस्तु की रक्षा कर सकते है। यह परिवतन जीवनशक्ति ही प्रदान नहीं करता कि तु विचाराम भी शान्ति समुत्पनकरता है। धम की परिभाषा अत्यधिक यात्मिक वस्तु को परिभाषा में बांधना बडा दिन हो जाता है, क्यापि अधिर चचनीय वस्तु या जब जीवन से सम्बध क्षीण होने लगता है तन मनुष्य इसे व्याग्या द्वारा स्थायित्व देने की चेष्टा करता है। धम की लगभग यही स्थिति है, क्यापि धम की चर्चा शब्दत तो बहुत होती है, पर जीवन से गहरा सम्य व अल्प ही रहता है। इस प्रकार के वाणी विलास का व्यापक प्रभाव यहाँ तब प्रसरित है कि अनपढ या घम के सम्बप में प्रत्यल्प मान रखने वाला भी ब्रह्म, मोन और अनेकातवाद की चर्चा करते नहीं अपाता । ईमानदारी के साथ यदि देखा जाय तो धम देवन वाणी तक ही सीमित रहने वाला तत्त्व नहीं, अपितु इसके सिद्धान्त दनिय जीवन म मोन प्रोत रह्ने चाहिये । धमदे मम तर बहुत कम लो। पहुंच पाते हैं। जिनकी पहुँच है उनकी वाणी मौन रहती है। भारत मे सचमुच धमकी बहुलता है । व्याख्यातार भी मनेव है। कोई दान के द्वारा धम को समझाने की चेप्टा करता है, तो कोई वेवलमाचार द्वारा ही इसकी व्याच्या परने म प्रय नगील है । अन धम की भारत मे प्रचुर व्याम्याएँ व परिमापा मिनती हैं। जनदशन के उद्भट विद्वान प्रज्ञा चप० श्री मुगनालजी मघत्री ने अपने 'दर्शन और चिनन' नामक प्रय में नॉर मॉल के मतानुसार यह बताया है पि "धम की लगभग दस हजार ध्यास्याएं हो चुरी हैं फिर भी दगम गभी पो काममावेश नहीं होता। माविर बौर, जन प्रादि धम उा व्यायामी मे बाहर ही रह जाते है ।"
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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