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________________ ग्यारह धर्म का स्वरूप भारतवर्ष में धर्म बहुत प्राचीन काल से भारत की ख्याति एक धर्मप्रधान देश के रूप मे रही है। यहाँ की संस्कृति और सभ्यता का पल्लवन धर्म के ही मूल्यवान सिद्धान्तो के ग्राधार पर हुआ है। ऋषि-मुनि व तत्त्व समीक्षको ने तपोवन मे रहकर त्यागमूलक जीवन व्यतीत करते हुए जो अनुभूतियाँ प्राप्त की, उनका व्यक्तिकरण भी अधिकतर धर्म के माध्यम से हुआ है। धर्म का सम्बन्ध भले ही ग्रात्मस्थ हो पर वह एक सामाजिक वस्तु है । समाज इतिहासवद संस्था है जो स्वय अपने ग्रापमे एक विज्ञान है, अत समाज की अन्तरात्मा का यथोचित पोषण यदि धर्म द्वारा होता है तो बाहरी आवश्यकताओ की पूर्ति विज्ञान द्वारा होती है, यत धर्म और विज्ञान को समीक्षात्मक दृष्टि से भिन्न मानने मे बुद्धिमत्ता नही है । धर्म जीवन का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंग है, जहाँ मानव कुछ क्षणो के लिए अपने-आपको सांसारिक यत्रणात्रो मे मुक्त पाता हुया प्राध्यात्मिक श्रानन्द का अनुभव करता है । वह लौकिक जीवन मे रहकर भी धर्म द्वारा ग्रान्तरिक चित्तवृत्ति मे लीन रहने के कारण लोकोतर या अनिर्वचनीय सुख का वोध करता है । व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की सुख-शान्ति और समृद्धि धर्म के समुचित विकास पर अवलम्बित है । ग्रन्तर्जगत् से सम्बद्ध रहने के बावजूद भी उसका वास्तविक स्वरूप व्यावहारिक है और वह बाह्य क्रियाश्रोद्वारा ही जाना जाता है । इसे ग्राचार की सजा दी जाती है । चाचार परम्परा के कारण ही इसे इतिहास - सम्बद्ध मानना पडता है। कारण कि ससार मे चाहे कोई भी वस्तु कितनी भी ग्रान्तरिक हो पर व्यवहार द्वारा ही अनुभूत होने के कारण वह श्राचारमूलक होती है और सामयिक प्रवाह के अनुसार उसकी ग्रात्मा के परिवर्तनीय रहने पर भी आचारो मे समय के अनुसार परिवर्तन करना
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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