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________________ श्रीपञ्चम्यां वुधार्द्रायुजि दिवसके मन्त्रिवारे बुधांशे । पूर्वायां सिंहलग्ने धनुपि धरणिजे वृश्चिकाकी तुलायाम् । सूर्ये शुक्रे कुलीरे गवि च सुरगुरौ निष्ठितं भव्यवयः ।। प्राप्तेज्यं शास्त्रसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम् ॥ ३३॥ जिसका सारांश यह है कि शक संवत् ८२० (ई० सन ८९८) में उत्तरपुराण पूर्ण किया गया और इसके लगभग ५० वर्ष पहले जिनसेनस्वामीका मृत्युकाल निश्चित किया गया है । इसके सिवाय शक संवत् ७०५ (ई० सन् ७८३) में बने हुए हरिवंशपुराणमें उसके कत्ती द्वितीय जिनसेनने आदिपुराणके कर्ता जिनसेनकी स्तुति की है। इससे सिद्ध है कि ई० सन् ७८३ के पहलेसे ई०स० ८४८ तक आदिपुराणके कती भगवजिनसेनका अस्तित्व था और उनके पीछे श्री शुभचन्द्राचार्यजी हुए हैं। तव नवमी शताब्दिके पहले शुभचन्द्रका समय किसी प्रकारसे नहीं माना जा सकता। __ मंगलाचरणमें शुभचन्द्रजीने खामिसमन्तभद्र भट्टाकलंकदेव और देवनन्दि (पूज्यपाद ) को भी नमस्कार किया है । परन्तु अकलंकदेव जिनसेनसे भी पहले हुए हैं। क्योंकि आदिपुराणमें जिनसेनने अकलंकदेवका सरण किया है और स्वामिसमन्तभद्र तथा पूज्यपादखामी इन से भी पहले हुए हैं । इस लिये समय निर्णयके विषयमें जिनसेनके समान इनसे कुछ सहायता नहीं मिल सकती । क्या ही अच्छा हो, यदि शुभचन्द्रके पीछेके किसी आचार्यने उनका सरण किया हो, और वह हमें प्रमाणस्वरूप मिल जाये । ऐसे प्रमाणसे यह सीमा निर्धारित हो जायेगी कि अमुक समयसे वे पहले ही हुए हैं, पीछे नहीं। शुभचन्द्र नामके एक दूसरे आचार्य सागवाड़ाके पट्टपर विक्रम संवत् १६०० (ई० सन् १५४३) में हुए हैं। उन्हें पट्माषाकविचक्रवर्तिकी उपाधि थी । पांडवपुराण, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी संस्कृत टीका आदि ४०-५० ग्रन्थ उनके बनाये हुए हैं। परन्तु ज्ञानार्णवके कर्ता शुभचन्द्रसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । शुभचन्द्र नामके और भी कई विद्वान, मट्टारक सुने जाते हैं। वट्टवर्धन राजाके समय श्रवणवेलंगुळके एक पट्टाचार्य भी शुभचन्द्र नामधारी हुए हैं और उनका समय भी पहले शुभचन्द्रके निकट ही अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है। __इस ग्रन्थके कर्ता शुभचन्द्राचार्यके जीवनचरितके विषयमें यहां विशेष कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इस लेखके आगे उनकी एक खतंत्र कथा लिखी गई है, जिससे उनके कुटुम्वादिका सब विषय स्पष्ट हो जाता है । यहां इतना ही कहना वस होगा कि वे एक बड़े भारी योगी थे, और संसारसे उन्हें अतिशय विरक्ति थी । राज्य छोड़कर इस विरक्तिके कारण ही वे योगी हुए थे । यह समस्त ज्ञानार्णवग्रन्थ उनकी योगीश्वरता और विरक्तिताका साक्षी है। ज्ञानार्णव । - इसका दूसरा नाम योगार्णव है । इसमें योगीश्वरोंके आचरण करने योग्य, जानने योग्य सम्पूर्ण-जैनसिद्धान्तका रहस्य भरा हुआ है । जैनियोंमें यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है । इसके पठन मनन करनेसे जो आनन्द प्राप्त होता है, वह वचन अगोचर है । "करकंघनको आरसी क्या?" पाठक स्वयं ही इसका अध्ययन करके हमारी सम्मतिको पुष्ट करेंगे । इस ग्रन्धकी कविता और कविकी प्रतिभा कैसी है, इसका निर्णय करना प्रतिभाशाली विद्वानोंका काम है, हम
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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