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________________ जैसे अज्ञोंका नहीं । परन्तु इतना कहे बिना हमारा भी जी नहीं मानता कि ऐसी खाभाविक, शीघ्रबोधक, सौम्य, सुन्दर और हृदयग्राही, कविता बहुत थोड़ी देखी जाती है । खेद है कि भर्तृहरिके शतकत्रयके समान इस ग्रन्थका सर्व साधारणमें प्रचार नहीं हुआ। यदि होता, तो विधर्मीय विद्वानोंके द्वारा इसकी प्रशंसा होते हुए सुनकर आज हमारा हृदय शीतल हो गया होता। श्वेताम्वरजैनसमाजमें श्रीहेमचन्द्रसूरिका योगशास्त्र नामका ग्रन्थ प्रसिद्ध है । उसके देखनेसे विदित हुआ कि ज्ञानार्णव तथा योगशास्त्रके अनेक अंश एकसे मिलते हैं। उदाहरणके लिये हम नीचे थोडेसे समान श्लोकोंको उद्धृत करते हैं। किंपाकफलसम्भोगसन्निभं तद्धि मैथुनम् । आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् ॥१० (ज्ञानार्णव पृष्ठ १३४१) रम्यमापातमात्रे यत् परिणामेतिदारुणम् । किंपाकफलसंकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥ ७८ (योगशास्त्र द्वितीयप्रकाश ।) मनस्यन्यद्वचस्यन्यद्वपुष्यन्यद्विचेष्टितम् । यासां प्रकृतिदोपेण प्रेम तासां कियद्वरम् ॥ ८० (ज्ञानार्णव पृष्ठ १४५।) मनस्यन्यद्वचस्यन्यक्रियायामन्यदेव हि । यासां साधारणस्त्रीणां ताः कथं सुखहतवे ॥ ८९ (योगशास हि० प्र०) विरज्य कामभोगेपु विमुच्य वपुपि स्पृहाम् । यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥ ३ स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिःपथ इवामलाः । समीर इव निःसङ्गा निर्ममत्वं समाश्रिताः ॥ १५ (ज्ञानार्णव पृष्ठ ८४ । ८६) विरतः कामभोगेभ्यः खशरीरेपि नि:स्पृहः । संवेगहृदनिर्ममः सर्वत्र समतां श्रयन् ॥ ५ सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्ददायकः । समीर इव निःसङ्गः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥ ७ (योगाशास्त्र सप्तमप्रकाश । ) ज्ञानाणवकी एक दो संस्कृतटीकायें सुनी हैं, परन्तु अभीतक देखने में नहीं आई केवल इसके गद्यभाग मात्रकी एक छोटीसी टीका श्रीश्रुतसागरसूरिकृत प्राप्त हुई है। भाषामें जयपुर निवासी पंडित जयचन्द्रजीकृत एक सुन्दरटीका है। हमको खास पं० जयचन्द्रजीकी लिखी हुई और शोधी हुई वचनिकासहित १ प्रति मुरादावादसे और १ भूल सटिप्पण प्रति जयपुरसे प्राप्त हुई थी। उसीके अनुसार मान्यवर पंडित पन्नालालजी वाकलीवालने यह सरल हिन्दीटीका तयार की है । इसके बनानेका सम्पूर्ण श्रेय स्वर्गीय पंडित जयचन्द्रजीको है और नवीन पद्धतिसे संस्कृत करनेका द्वितीय श्रेय पन्नालालजीको है। नियमानुसार ग्रन्थकर्ताका समय निर्णय पं० पन्नालालजीको ही लिखना चाहिये था; परन्तु उनका आग्रह इसे मुझसे ही लिखानेका हुआ, इसलिये उनकी आज्ञाका पालन करना मैंने अपना कर्तव्य समझा है । इसके लिखनेमें मेरी मन्दबुद्धिके अनुसार कुछ भूल हुई हो, तो उदारपाठक क्षमा करें । क्योंकि ऐसे विषयोंके लिखनेके लिये जितने साहित्यकी अवश्यकता है, जैनियोंका उतना साहित्य अभीतक प्रकाशित नहीं हुआ है और न कोई ऐसा संग्रह अथवा लायब्रेरी है, जहां लेखककी इच्छा पूर्ण हो सके।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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