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________________ धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कुवेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ १ ॥ मानतुंगके विषयमें और कुछ भी नहीं कहा जा सकता, परंतु उनका भोजसे सम्बन्ध अवश्य है । श्वेताम्बर ग्रन्थकारोंने भी मानतुंग तथा भोजकी कथा लिखी है । इससे भोज तथा शुभचन्द्रका समय ही उनका समय मानना चाहिये । धनंजयके विषयमें काव्यमालाके सम्पादकने लिखा है, कि अनुमानसे ईसाकी आठवीं सदीके पूर्वमें धनंजयका समय मानना चाहिये । क्योंकि ईस्वी सन् ८८४ तक राज्य करनेवाले काश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा के समसामयिक आनन्दवर्धन और रत्नाकर कविने तथा ई० स० ९५९ में श्रीसोमदेवमहाकविने राजशेखरकविकी प्रशंसा की है और उस राजशेखरने धनंजयकी प्रशंसा की है । इसलिये धनंजय राजशेखरके पूर्ववर्ती थे । और ऐसा माननेसे भोजकी समकालीनता धनंजयके साथ नहीं बन सकती । तब क्या कालिदासके समान धनंजय भी कई हुए हैं, ऐसा मान लेना चाहिये ? विद्वानोंको निर्णय करना चाहिये कि कथाओं में इसप्रकार ऐतिहासिक तत्त्वोंका अभाव क्यों है ? / शुभचन्द्राचार्य | ज्ञानार्णवमें श्रीशुभचन्द्रसूरिने अपने विषयमें कुछ भी नहीं लिखा। और तो क्या अपना नाम भी नहीं लिखा । यदि प्रत्येक सर्गके अन्तमें उनका नाम नहीं मिलता और परम्परासे उनके ग्रन्थके पढ़नेकी परिपाटी न चली आई होती, तो आज यह जानना भी कठिन हो जाता कि ज्ञानार्णवके रचयिता कौन हैं। उनके समयादिके विषयमें बाह्य प्रमाणोंसे एक प्रकारसे यह निश्चय हुआ कि वे ईसाकी ग्यारहवीं सदीमें हुए हैं । परन्तु अब देखना चाहिये कि उनका ग्रन्थ भी इस विषय में कुछ साक्षी दे सकता है, या नहीं । मंगलाचरणमें उन्होंने लिखा है, - -- जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रैविद्यवन्दिताः । योगिभिर्यत्समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ॥ १ ॥ अर्थात् " जिसे योगीजन पा करके आत्माके निश्चयसे स्खलित नहीं होते हैं, वह त्रैवियों ( न्याय व्याकरण और सिद्धान्तके ज्ञाताओं ) करके वन्दनीय भगवत् जिनसेनकी वाणी जयवन्ती रहे । " इस लोकसे यह निश्चय होता है । श्रीशुभचन्द्राचार्यसे भगवान् जिनसेन पहले हुए हैं और भगवत् जिनसेनका समय ईस्वी सन ८४८ के पहले पुष्ट यह सब ही जानते हैं कि, भगवज्जिनसेन महापुराणको पूरा नहीं भाग आदिपुराण (कुछ कम ) बना था और उनका स्वर्गवास उनके अग्रगण्य शिष्य श्रीगुणभद्राचार्यने उत्तरपुराण बनाकर नेहापुराणको पूर्ण किया था । उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें उन्होंने लिखा है:---- प्रमाणोंसे सिद्ध होता है । प्रायः कर सके थे, केवल उसका पूर्व - गया था । पीछे कोई ५० वर्ष शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिधाब्दान्ते । मङ्गलमहार्थकारिणि पिङ्गलनामनि सतजनसुखदे ॥ ३२ ॥ + १ ‘भगवज्जिनसेन और गुणभद्राचार्य' नामका लगभग ९० पुष्ठका एक विस्तृत लेख, इस 'समयविचार" 'के लिखनेवालेने ही 'विद्वनमाला' नामकी पुस्तकमें प्रकाशित किया है। जो पाठक जिनसेन खामीका वास्तविक समय जानना चाहें, वे उक्त पुस्तकको पढ़ें।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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