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________________ पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भक्ष्यमक्षय्यमनं . .. विस्तीर्ण वस्त्रमाशादशकममलिनं तल्पमस्खल्पमुर्वी । येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणतिः खात्मसंतोपिणस्ते __ धन्याः संन्यस्वदैन्यन्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति ॥ १ ॥ अर्थात्-जिनके हाथरूपी पवित्र पात्र है, जो सदा भ्रमण करते हैं, जिन्हें मिक्षामें अक्षय्य अन्न मिलता है, जिनके दिशारूपी लम्बे चौड़े निर्मल वस्त्र हैं, विस्तीर्ण पृथ्वी जिनकी शय्या है, परिग्रहत्यागरूप जिनकी परिणति रहती है, अपने आत्मामें ही जिन्हें संतोष रहता है और जो कोका नाश करते रहते हैं, ऐसे दीनतारूपी दुःखसमूहसे रहित महात्माओंको धन्य है। · भर्तृहरिका वैराग्यशतक बड़ी ही उत्तम रचना है। प्रायः वह सबका सब जैनसिद्धान्तोंसे मिलता जुलता है । यदि शतकत्रयके कत्ती मर्तृहरि ही शुभचंद्रके भाई सिद्ध हों, तो हम कह सकते है कि शंगार और नीतिशतक उन्होंने अपनी पूर्वावस्थामें बनाये थे और वैराग्यशतक दीक्षा लेनेपर बनाया था । यह देखकर हमको आश्चर्य हुआ कि ज्ञानार्णव और वैराग्यशतकके भी अनेक श्लोकोंका भाव एकसा मिलता है। बल्कि देखिये, इन दोनों श्लोकोंमे कितना साम्य है। विन्ध्याद्रिनगरं गुहा वसतिकाः शय्या शिला पार्वती . दीपाश्चन्द्रकरा मृगाः सहचरा मैत्री कुलीनाङ्गना। : विज्ञानं सलिलं तपः सदशनं येषां प्रशान्तात्मनां । धन्यास्ते भवपङ्कनिर्गमपथप्रोद्देशकाः सन्तु नः ॥ २१ ॥ -ज्ञानार्णव, पृष्ठ ८७। शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरूणां त्वच: सारङ्गाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कोमलैः । येषां निझरमम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि थैर्वद्धो न सेवावलिः॥ -वैराग्यशतक, श्लोक ९२ । इस कवितासाम्यसे और कुछ नहीं तो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि (शतककर्ता) भर्तृहरि और शुभचन्द्र एक दूसरेके ग्रन्थोंके पठन अध्ययन करनेवाले अवश्य होंगे, चाहे एक समयमें न रहे हों। · ... , अन्य कवि । कालिदास अनेक हुए हैं। उनमें जो सबसे प्रसिद्ध हैं, वे महाराज विक्रमकी सभाके रत्न धे और दूसरे भोजकी समामें थे, जिनके विषयमें हमारे यहां सैकड़ों किंवदन्तियां प्रसिद्ध हैं । ये ही कालिदास शुभचन्द्रके समकालीन जान पड़ते हैं । भक्तामरकी कथामें जिस वररुचिका जिकर आया है, वह कोई अन्य पंडित होगा : क्योंकि वररुचिकवि जो विक्रमकी समाके नवरत्नोंमें थे, वे ये नहीं हो सकते । यथाः १ अभी कुछ दिन हुए भर्तृहरिके पामसे एक विज्ञानशतक नामका अन्य भी प्रकाशित हुआ है। परन्तु यथार्थमें वह किसी दूसरे प्रन्थकारका बनाया हुआ जान पड़ता है।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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