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________________ भट्टारक विश्वभूषणकी कथाका आशय प्रायः इन्हींकी ओर झुकता हुआ है। परन्तु शुभचन्द्रके समयसे भर्तृहरिका समय मिलानेमें बड़ी बड़ी झंझटें हैं। सबसे पहली बात तो यही है कि प्रसिद्धिके अनुसार भर्तृहरि विक्रमादित्यके बड़े भाई हैं, और विश्वभूषणजी उन्हें भोजका भाई बतलाते हैं । जमीन आसमान जैसा अन्तर है । क्योंकि भोज ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दिमें हुए हैं और विक्रमादित्य संवत्के प्रारंभमें अर्थात् ईसासे .५७ वर्ष पहले । लोकमें जो किंवदन्तियां प्रसिद्ध हैं और भर्तृहरिसम्बन्धी दो एक कथाग्रन्थ हैं, उनसे जाना जाता है कि भर्तृहरि विक्रमके ज्येष्ठभ्राता थे । उन्होंने बहुत समयतक राज्य किया है । एक वार अपनी प्रियतमा स्त्रीका दुश्चरित्र देखकर वे संसारसे विरक्त होकर योगी हो गये थे । स्त्रीके विषयमें उस समय उन्होंने यह श्लोक कहा था: यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः । अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या धिक तां च तं च मदनं च इमां च मां च ।। अर्थात् जिसका मैं निरन्तर चिन्तवन किया करता हूं, वह मेरी स्त्री मुझसे विरक्त है। इतना ही नहीं, किन्तु दूसरे पुरुषपर आसक्त है और वह पुरुष किसी दूसरी स्त्रीपर आसक्त है, तथा वह दूसरी स्त्री मुझपर प्रसन्न है । अतएव उस स्त्रीको, उस पुरुषको, उस कामदेवको, इस (मेरी स्त्रीको) को, और मुझको भी धिक्कार है । भर्तृहरिके विषयमें छोटी मोटी बहुतसी कथायें प्रसिद्ध हैं, जिनका यहां उल्लेख करनेकी अवश्यकता नहीं दिखती । भर्तृहरिके पिताका नाम वीरसेन था। उनके छह पुत्र थे, जिनमें एक विक्रमादित्य भी थे । भर्तृहरिकी स्त्रीका नाम पद्माक्षी अथवा पिङ्गाला था। । जैसे विक्रम नामके कई राजा हो गये हैं, उसी प्रकार भर्तृहरि भी कई हो गये हैं। एक भर्तृहरि वाक्यपदीय तथा राहतकाव्यका कर्ता गिना जाता है । किसीके मतमें शतकत्रय और वाक्यपदीय दोनोंका कर्ता एक है । इसिंग नामका एक चीनीयात्री भारतमें ईसाकी सातवीं सदीमें आया था । उसने भर्तृहरिकी मृत्यु सन् ६५० ईवीमें लिखी है।। इन सब बातोंसे यह कुछ भी निश्चय नहीं हो सकता कि शुभचन्द्राचायके भाई भर्तृहरि उपर्युक्त दोनों तीनों में से कोई एक है, अथवा कोई पृथक् ही हैं । विद्वान् ग्रंथकार विद्यावाचस्पतिने तत्त्वविन्दु ग्रन्थमें भर्तृहरिको धर्मबाह्य लिखा है और उपरिलिखित भर्तृहरि वैदिकधर्मके अनुयायी माने जाते हैं । इसलिये आश्चर्य नहीं कि इस धर्मवाधसे जैनका ही तात्पर्य हो और शुभचन्द्रके भाई भर्तृहरिको ही यह धर्मबाह्य संज्ञा दी गई हो । शतकत्रयके अनेक श्लोक ऐसे हैं, जिनमें जैनधर्मके अभिप्राय स्पष्ट व्यक्त होते हैं । यथा एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः। कदाहं सम्भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः ॥ ६५॥ -वैराग्यशतक । अर्थात्-मै एकाकी निस्पृह शान्त और कोको नाश करनेमें समर्थ पाणिपात्र (हाथ ही जिसके पात्र हैं) दिगम्बरमुनि कव होऊंगा । वैराग्यशतकके ५७ वें लोकमें जैनसाधुकी प्रशंसा इस प्रकारकी है । देखिये कता
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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