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________________ समाज-सेवा ६३७ महब्बत इस बेहद इन्तजार की रगड से गरमा जाती है और आग की चिनगारियां उगलने लगती है। इसका दोप वीवी को न लगा कर समाज को ही लगाना चाहिए। कुम्हारिन, चमारिन वगैरह अपनी आँखो अपने पतियो को कुछ पैदा करते देखती है, कुछ बनाते देखती है, कुछ उगलते देखता है, कुछ उमगते देखती है, कुछ मानद पाते देखती हैं, पर सेठो की औरतें इन्तजार में सिर्फ घटियाँ गिनती है और अगर देखती है तो यह देखती है कि उनके पति घिसटतेघिसटते चले आ रहे है, या पांव के पहिये लुडकाते आ रहे है, या मोटर में बैठ प्रोघते आ रहे है। वे उनकी दया के पात्र रह जाते है, मुहब्बत के नहीं । कुम्हार का चेहरा काम के बाद चमकेगा, वजीर का मुरझावेगा। कुम्हार के जी में होगी कि थोडी देर और काम करता, वजीर के जी में होगी कि जरा जल्दी ही छुट्टी मिल जाती तो अच्छा होता। अदर होता है, वही वाहर चमकता है। जो चमकता है, उसी हिसाव से स्वागत मिलता है। जिसे काम मे सुख नही, वही उसे खेल में ढूढेगा। वहाँ वह उसको मिल भी जायेगा। उसके लिये तो काम से वचना ही सुख है वह काम से तो किसी तरह वच जाता है, पर काम की चिंता से नहीं बच पाता। खेल मे भी जी से नहीं लग पाता। वहाँ से भी सुख के लिहाज से खाली हाथ ही लौटता है। 'काम के घटे कम करो'--यह शोर मच रहा है और यह प्रलय के दिन तक मचता रहेगा। काम आठ घटे की बजाय आप घटे का भी कर दिया जाये तव भी सुख न मिलेगा। ऊपर नीचे हाथ किये जाने मे आप घटे में ही तवियत ऊब जायेगी। पांच मिनट को भी मशीन वनने मे सूख नही। एक मिनट की गुलामी दिन भर का खुनचुस लेती है। काम के घटे कम करने से काम न चलेगा। काम को बदलना होगा। काम अभी तक साधन बना हुआ है । उसे साधन और साध्य दोनो वनना होगा। चार मील सर पर दूध रख, बाजार पहुँच, हलवाई को वेच और बदले मे रवडी खाने मे वह सुख नही है, जो घर पर उसी दूध की रवडी बना कर खाने में है। सावन को साध्य में बदलते ही सुख मिल सकेगा और वही सच्चा सुख होगा। विना समझे-सोचे पहिया घुमाये जाना, हथौडा चलाये जाना, तार काटे जाना, कागज़ उठाये जाना, उजड्डपन या पागलपन के काम है। इनको मिल-मालिक भला और समझदारी का काम बताते है और नाज, तरकारी और फल उगाने के शानदार काम को बेअक्ली और नासमझी का बताते है । खूब | किया उन्होने दोनो मे से एक नही। पेट भरने के लिए मेहनत की जाती है। यह सच है, पर इसमे एक-चौथाई सचाई है। तीन-चौथाई सचाई इसमें है कि हम मेहनत इसलिए करते है कि हम जीते रहें और आनन्द के साथ जिन्दगी बिता सके और गुलामी का गलीज धब्बा अपनी ज़िन्दगी की चादर पर न लगने दें। हम पेट भरने के लिए हलवा बनाये, यह ठीक है, पर हम ही उमको खायें-खिलावें, यह सवाठीक है, और हम ही उसके बनाने का आनन्द ले, यह डेढ ठीक है। मेहनत हमारी, उपज हमारी, तजुरुवा हमारा। तव सच्चा सुख भी हमारा।। ___ जानवर रस्सी से वधताहै, यानी जगह से वधता है। शेर भी मांद मे रह कर जगह से वधता है। और आदमी? वह घर में रह कर जगह से वधता है और दस वजे दफ्तर जाकर वक्त से बँधता है । वाह रे प्राणी श्रेष्ठ । चिडिया फुदकती फिरती है और खाती फिरती है । उसे ९-१०-११ बजने से कोई सरोकार नहीं। आदमी के अद्धे, पौवे वजते हैं, मिनटो का हिसाव रक्खा जाता है। सिकडो की कीमत आंकी जाती है और कहा यह जाता है कि उसने जगह (Space)और वक्त (Time) दोनो पर काबू पा लिया है । हमे तो ऐसा जंचता है कि वह दोनो के काबू में आ गया है। और लीजिये। हमें वाप-दादो की इज्जत रखना है और नाती-पोतो के लिए धन छोड जाना है, यानी स्वर्गवासियो को सुख पहचाना है और उनको जिन्होने अभी जन्म भी नहीं लिया। तव हम वीच वालो को मुख कैमे मिल सकता है?
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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