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________________ प्रेमी-प्रभिनदन- प्रथ अगले-पिछलो को भूल जाना, जानवर बनना नही है, सच्चा श्रादमी बनना है । हमारे सुखी रहने मे, हमारे पिछले सुखी और हमारे अगले सुखी । सुखी ही सुखी सन्तान छोड जाते है और सुखी देख कर ही स्वर्गीय सुखी होते है | बेमतलव की मेहनत में समय खर्च करना गुनाह है । वक्त पूजी है । उसे काम में खर्च करना चाहिए और ऐसे काम में जो अपने काम का हो । ६३८ सुख भोगने की ताकत को जाया करने वाले कामो मे लगा कर जो वक्त जाता है, उस कमी को न गाना पूरा कर सकता है, न खेल, न बजाना पूरा कर सकता है, न तमाशा और न कोई और चीज़ । कपडा खतम कर धव्वा छुडाना, धन्वा छुडाना नही कहलाता। ठीक इसी तरह आदमी को निकाल कर वक्त बचाना, वक्त बचाना नही हो सकता । मिलें यही कर रही है । सौ श्रादमी की जगह दस और दस की जगह एक से काम लेकर निन्यानवे को बेकार कर रही हैं। काम में लगे एक को भी सुख से वंचित कर रही है । यो सौ के सौ का सुख हडप करती जा रही है । मिल और मशीन एक चीज़ नही । मिल श्रादमी के सुख को खाती है और मशीन आदमी को सुख पहुँचाती है। मशीन सुख से जनमी है, मिल शरारत से । चर्खा मशीन है, कोल्हू मशीन है, चाक मशीन है, सीने की मशीन मशीन है। मशीनें घर को आवाद करती है, मिलें वरवाद करती है। मशीन कुछ सिखाती है, मिल कुछ भुलाती है । मशीन सेवा करती है, मिल सेवा लेती है। मशीन पैदा करती है, मिल पैदा करवाती है। मशीन समाज का ढांचा बनाती है, मिल उसी को ढाती है। मशीन चरित्र बनाती है, मिल उसको धूल मे मिलाती है। मशीन गाती है, मिल चिल्लाती है | मशीन धर्मपत्नी की तरह घर में आकर बसती हैं, मिले वेश्या की तरह अपने घर बुलाती है और खून चूस कर निकाल बाहर करती है। मशीन चलाने में मन हिलोरें लेता है, मिल में काम करने में मन चकराने लगता है, जी घबराने लगता है। मशीनें पुरानी है । हमसे हिलमिल गई है। मिलें नई है और कर्कश स्वभाव की है। मशीनें हमारे कहने में रहती हैं, मिले हमारी एक नही सुनती । मतलब यह कि मशीन और मिल का कोई मुकावला नही । एक देवी, दूसरी राक्षसी है । मशीनो की पैदावार का ठीक-ठीक बटवारा होता है। मिलो का न होता है, और न हो सकता है और अगर मार-पीट कर ठीक कर दिया जाय तो तरह-तरह की दुर्गंध फैलेगी, बेकारी फैलेगी, बदकारी फैलेगी, बीमारी फैलेगी श्रीर न जाने क्या-क्या । मशीन पर लगाया हुआ पैसा घी-दूध में वदल जाता है, मिलो पर लगाया हुआ पैसा लाठी, तलवार, बदूक, वम वन जाता है | J एक का सुख जिसमें हैं, सबका सुख उसमें है । एक को भुला कर सब के सुख की मोचना सब के दुख की सोचना है। मिले सैकडों का जी दुखा कर शायद ही किसी एक को झूठा सुख दे सकती हो। झूठा सुख यो कि वे मुफ्त क रुपया देती है और काफी से ज्यादा धन से ऊवा देती है । ऊवने में सुख कहाँ ? ऊपर बताये तरीको से सुख मिल सकता है, पर उस सुख को बुद्धि के जरिये बहुत वढाया जा सकता है । ज्ञान बाहिरी श्राराम को अन्दर ले जाकर कोने-कोने में पहुँचा देता है । अनुभव, विद्या, हिम्मत वगैरह से ज्ञान कुछ ऊँची चीज़ है । वही अपनी चीज है। और चीज़े उससे वहुत नीची है। ज्ञानी आत्म-सुख खोकर जिस्मानी आराम नही चाहेगा । भेडिये की तरह कुत्ते के पट्टे पर उसकी नजर फौरन पहुँचती है। उसको यह पता रहता है कि आदमी को कहाँ, किस तरह, किस रास्ते पहुँचना है। जो यह नही जानता वह प्रादमियत को नही जानता और फिर वह आदमी कैसा ? समझ में नहीं आता, दुनिया धन कमाने मे धीरज खोकर अपने को घी-मान कैसे जाने हुए है । वह घन की बुन में पागल बनी हुई हैं और उसी पागलपन का नाम उसने वुद्धिमानी रख छोडा है । खूव । उसने सारे सन्तमहन्तो को महलो में ला विठाया है, गदी गलियो मे मंदिर बना कर न जाने वे उनको क्या सिद्ध करना चाहते है 1 ज्ञान दुनिया इतनी दूर हट गई है कि उसके हमेशा साथ रहने वाला सुख उसकी पहचान में नही आता । सुख का
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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