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________________ स्मरणाध्याय ३७ हुना | लहसुन डालकर उवाला दूध पीने से पेट पर अच्छा असर होता है । इस अनुभवसिद्ध श्राग्रहपूर्ण हेमचन्द्र की उक्ति को मानकर मैने भी उनके तैयार भेजे वैसे दुग्धपान को आज़माया । कभी में घाटकोपर से शान्ताक्रूज जुहू तट तक पैदल चलकर जाता तो अन्य मित्रो के साथ हेमचन्द्र और चम्पा दोनो भी साथ चलते । दोनो की निर्दोषता और मुक्त हृदयता मुझे यह मानने को रोकती थी कि ये दोनो पति-पत्नी है । जव कभी प्रेमीजी शरीक हो तब तो हमारी गोष्ठी में दो दल श्रवश्य हो जाते और मेरा झुकाव नियम मे प्रेमीजी के विरुद्ध हेमचन्द्र की ओर रहता । धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक आदि विषयो में प्रेमीजी का ( जो कभी स्कूल-कॉलेज में नही गये) दृष्टिविन्दु मैने कभी गतानुगतिक नहीं देखा, जिसका कि विशेष विकाम हेमचन्द्र ने अपने मे किया था। आगरा, अहमदाबाद, काशी आदि जहाँकही से मैं बम्बई प्राता तो प्रेमीजी से मिलना और पारम्परिक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक चर्चाएँ खुल करके करना मानो मेरा एक स्वभाव ही हो गया था। आगरे से प्रकाशित हुए मेरे हिन्दी ग्रन्थ तो उन्होने देखे ही थे, पर ग्रहमदाबाद प्रकाशित जव मेरा 'सन्मतितकं' का मस्करण प्रेमीजी ने देखा तो वे मुझे न्यायकुमुदचन्द्र का वैसा ही सस्करण निकालने hat ग्रह करने लगे और नदयं उमको एक पुरानी लिखित प्रति भी मुझे भेज दी, जो बहुत वर्षो तक मेरे पास रही श्रीर जिसका उपयोग 'सन्मतितर्क' के मस्करण में किया गया है । सम्पादन मे सहकारी रुप से पण्डित की हमे श्रावश्यकता होती थी तो प्रेमी जी बार-बार मुझे कहते थे कि श्राप किसी होनहार दिगम्बर पण्डित को रसिए, जो काम सीख कर आगे वैसा ही दिगम्बर- साहित्य प्रकाशित करे। यह सूचना प० दरवारीलाल 'सत्यभक्त', जो उस समय इन्दौर मे थे, उनके माथ पत्र-व्यवहार में परिणत हुई। प्रेमीजी माणिकचन्द जैन ग्रन्थमाला का योग्यतापूर्वक सम्पादन करते ही थे, पर उनकी इच्छा यह थी कि न्यायकुमुदचन्द्र आदि जैसे ग्रन्थ 'मन्मतितर्क' के ढग पर सम्पादित हो । उनकी लगन प्रवल थी, पर समय-परिपाक न हुआ था। बीच मे वर्षं वीते, पर निकटता नही बीती । श्रतएव हम दोनो एक-दूसरे की सम्प्रदाय विषयक धारणा को ठीक-ठीक समझ पाये थे और हम दोनों के बीच कोई पन्य-ग्रन्थि या सम्प्रदाय ग्रन्थि फटकती न थी । एक बार प्रेमीजी ने कहा, "हमारी परम्परा में पण्डित बहुत है भौर उनमे कुछ अच्छे भी श्रवश्य है, पर मे चाहता हूं कि उनमें से किसी को भी पन्य-ग्रन्थि ढीली हो ।" मैंने कहा कि यही बात में श्वेताम्बर साघुनो के वारे मैं भी चाहता हूँ । श्रीयुत जुगल किशोर जी मुख्तार एक पुराने लेंसक और इतिहासरसिक है। प्रेमीजी का उनमे खासा परिचय था । प्रेमीजी की इच्छा थी कि श्री मुख्तार जी कभी सशोवन और इतिहास के उदात्त वातावरण मे रहे । आन्तरिक इच्छा सूचित करके प्रेमीजी ने श्रीयुत मुस्तार जी को श्रहमदावाद भेजा । वे हमारे पास ठहरे श्रीर एक नया परिचय प्रारम्भ हुआ। गुजरात विद्यापीठ के और खासकर तदन्तर्गत पुरातत्त्वमन्दिर के वातावरण और कार्यकर्ता का श्रीयुत मुख्तार जी के ऊपर अच्छा प्रभाव पडा, ऐसी मुझे उनके परिचय से प्रतीति हुई थी, जो कभी मैंने प्रेमी जी से प्रकट भी की थी । प्रेमीजी मुझसे कहते थे कि मुख्तार साहब की गन्थि-शिथिलता का जवाब समय ही देगा । पर प्रेमीजी के कारण मुझको श्रीयुत मुस्तार जी का ही नहीं, बल्कि दूसरे अनेक विद्वानो एव सज्जनो का शुभग परिचय हुआ है, जो अविस्मरणीय है । प्रेमीजी के घर या दूकान पर बैठना मानो अनेक हिन्दी, मराठी, गुजराती और विशिष्ट विद्वानों का परिचय साधना था । प० दरवारीलाल जी 'सत्यभवत' की मेरी मंत्री इसी गोष्ठी का श्रन्यतम फल है । मेरी मैत्री उन लोगो मे कभी म्यायी नही बनी, जो साम्प्रदायिक और निविड-ग्रन्थि हो । १९३१ के वर्षाकाल में पर्यूषण व्याख्यानमाला के प्रसग पर हमने प्रेमीजी और प० दरवारीलाल जी 'सत्यभक्त' को कुटुम्ब अहमदाबाद बुलाया । उन्होने श्रसाम्प्रदायिक और सामयिक विविध विषयो पर विद्वानो के व्याख्यान सुने, खुद भी व्याख्यान दिये। साथ ही उनकी इच्छा जाग्रत हुई कि ऐसा आयोजन बम्बई में भी हो । बम्बई के युवको ने अगले साल से पर्यूषण व्याख्यानमाला का आयोजन भी किया। प्रेमीजी का सक्रिय सहयोग रहा। मेरे कहने पर उन्होने पुराने सुधारक वयोवृद्ध बाबू सूरजभानु जी वकील को वम्बई में बुलाया, जिनके लेख में वर्षों पहले पढ चुका था और जिनमे मिलने की चिराभिलाषा भी थी । उक्त बाबू जी १९३२ में बम्बई पधारे और व्याख्यान भी दिया। मेरी यह अभिलापा एकमात्र प्रेमीजी के ही कारण सफल हुई ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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