SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रेमी-अभिनवन-प्रथ ३८ उघर हेमचन्द्र की उम्र बढती जाती थी और प्रेमीजी की चिन्ता भी बढती जाती थी कि यह अनेक विषयों का धुनी प्रयोगवीर जोगी कारोवार कैसे संभालेगा। पर मेरा निश्चित विश्वास था कि हेमचन्द्र विरज विभूति है। प्रेमीजी है तो जन्म से सी० पी० के और देहाती संकीर्ण सस्कार की परम्परा के, पर उनकी सामाजिक मान्यताएं धार्मिक मान्यताओ की तरह बन्धनमुक्त वन गई थी। अतएव उनके घर में लाज-परदे का कोई वन्धन न था और आज भी नहीं है । हेमचन्द्र की पत्नी, जो उस समय किशोरी और तरुणी थी, वह उतनी ही स्वतन्त्रता से सबके साथ पेश आती, जितनी स्वतन्त्रता से रमावहन, हेमचन्द्र और प्रेमीजी खुद । प्रेमीजी पूरे सुधारक है। इसीसे उन्होने अपने भाई की पून गादी विधवा से कराई और रूढिवादियो के खफा होने की परवाह नहीं की। प्रेमीजी के माथ चम्पा का व्यवहार देखकर कोई भी अनजान आदमी नहीं कह सकता कि यह उनकी पुत्रा है। उसे आभास यही होगा कि वह उनकी इकलौती और लाडिली पुत्री है। जब कभी जानो, प्रेमीजी के निकट मुक्त वातावरण पानोगे। रूढिचुस्त और सुधारक दोनो इस बात में सहमत होगे कि प्रेमीजी खुद अजातशत्रु है। प्रेमीजी गरीबी की हालत और मामूली नौकरी से ऊँचे उठकर इतना व्यापक और ऊँचा स्थान पाये हुए है कि आज उनको सारा हिन्दी ससार सम्मान की दृष्टि से देखता है। इसकी कुजी उनकी सच्चाई, कार्यनिष्ठा और बहुश्रुतता में है। यद्यपि वे अपने इकलौते सत्यहृदय युवक पुत्र के वियोग से दुखित रहते है, पर मैने देखा है कि उनका आश्वासन एकमात्र विविध विषयक वाचन और कार्यप्रवणता है। वे कसे ही बीमार क्यो न हो, वैद्य, डॉक्टर और मित्र कितनी ही मनाई क्यो न करें, पर उनके विस्तरे और सिरहाने के इर्द-गिर्द वाचन की कुछ-न-कुछ नई मामग्री मैंने अवश्य देखी है। प्रेमीजी के चाहने वालो में मामूली-से-मामूली आदमी भी रहता है और विशिष्ट-से-विशिष्ट विद्वान् का भी समावेश होता है । अभी-अभी मैं हरकिसनदास हॉम्पीटल में देखता था कि उनकी खटिया के इर्द-गिर्द उनके अरोग्य के इच्छुको का दल हर वक्त जमा है। प्रेमीजी परिमितव्ययी और सादगीजीवी है, पर वे मेहमानो और स्नेहियो के लिए उतने ही उदार है । इसीसे उनके यहां जाने मे किसीको सकोच नहीं होता। १९३३ की जुलाई की तीसरी तारीख को मै जव हिन्दू यूनिवसिटी मे काम करने के लिए वम्बई से रवाना हुआ तव प्रेमीजी ने उस पुरानी लगन को ताजा करके मुझसे कहा कि काशी में तरुण प० महेन्द्रकुमार जी है। आप उनसे नई पद्धति के अनुसार न्यायकुमुदचन्द्र का सम्पादन अवश्य करवाएँ । प्रथम से ही परिचित ५० कैलाशचन्द्र जी काशी मे थे ही। महेन्द्रकुमार जी नये मिले। दोनो से प्रेमीजी का विचार कहकर उस काम की पूर्वभूमिका का विचार मैने कहा । दोनो तत्काल कृतनिश्चय हुए और हिन्दू यूनिवर्सिटी में पाने लगे। चिन्तन-गोष्ठी जमी। समय आते ही प्रेमीजी की इच्छा के अनुसार उक्त दोनो पडितो ने न्यायकुमुदचन्द्र का सुसस्कृत सम्पादन करके उसे माणिकचन्द जैन-प्रन्यमाला से प्रकाशित कराया। प० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य मेरे काम में भी सहयोगी बने और व्यापक अध्ययन चालू रक्खा । फलत उन्होने 'सिन्धी-जैन-सीरीज़' मे स्वतन्त्र भाव से अकलक ग्रन्यत्रय का और सहकारी रूप से प्रमाण-मीमासा आदि ग्रन्थो का सम्पादन किया, जिससे प्रेमीजी की इच्छा अशत अवश्य पूर्ण हुई है, परन्तु मैंने देखा है कि प्रेमीजी उतने मात्र से सम्पूर्ण सन्तुष्ट नही। उनकी उत्कट अभिलाषाएँ कम-से-कम तीन है । एक तो वे अन्य सात्विक विद्वानो की तरह अपनी परम्परा के पण्डितो का धरातल इतना ऊँचा देखना चाहते है कि जिससे पण्डितगण सार्वजनिक प्रतिष्ठा लाभ कर सकें। दूसरी कामना उनकी सदा यह रहती है कि जैन-भण्डारो के-कम-सेकम दिगम्बर-भण्डारो के-उद्धार और रक्षण का कार्य सर्वथा नवयुगानुसारी हो और पण्डितो एव घनिको की शक्ति का सुमेल इस कार्य को सिद्ध करे। उनकी तीसरी अदम्य आकाक्षा यह देखी है कि फिरको की और खासकर जातिपांति की सकुचितता पौर चौकाबन्धी खत्म हो एव स्त्रियो की खासकर विधवामो की स्थिति सुधरे । मैने देखा है कि प्रेमीजी ने अपनी ओर से उक्त इच्छाओ की पूर्ति के लिए स्वय अथक प्रयत्न किया है और दूसरो को भी प्रेरित किया है । आज जो दिगम्बर परम्परा में नवयुगानुसारी कुछ प्रवृत्तियां देखी जाती है उनमे साक्षात् या परम्परा से
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy