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________________ मराठी में जैन-साहित्य और साहित्यिक श्री रावजी नेमचद शहा १-आदि तीर्थकर का आदिधर्म जैनधर्म सवसे उपेक्षित धर्म है। जैनदर्शन, सस्कृति और इतिहास के सम्बन्ध में भयानक गलतफहमियां जनता में फैली हुई है। प्रख्यात विद्वान तक इस धर्म के सम्बन्ध में कई प्रकार के कुतकं करते दिखाई देते है। भगवज्जिनसेनकृत महापुराण मे-"युगादिपुरुष प्रोक्ता युगादी प्रभविष्णव" जो है ऐमे वृषभदेव महाप्रतापी और महाप्रज्ञावान हुए है, ऐसा उल्लेख है। सर्वज्ञता जिससे प्राप्त हो ऐमा सन्मार्ग-रत्नत्रयपय बतलाने वाले वीतरागो आद्य धर्मोपदेष्य ऋषभ तीर्थकर ने तत्कालीन और वाद की जनता को सुमम्कृत जीवनपद्धति और जीवनदृष्टिकोण बताया। इसीमे 'प्रादिसुविधकार', 'अर्हत', 'आदिब्रह्म' आदि मार्थक नामाभिधानो मे कवीद्र ने उनकी स्तुति की है। मोहेनजोदडो में प्राप्त पांच हजार वर्ष पूर्व के अवदोपो में ऋषभ तीर्थकर के कायोत्सर्ग अवस्था की नग्न मूर्तियां गिल्पित मिली है। उनपर ऋषभ के बोधचिह्न भी है । ग० व० गमप्रसाद चन्दा के अनुसार ये मूर्तियां ऋषभतीर्थकरो की ही है । औद्योगिक युग के बुद्धिप्रधान आचारादि धर्म का प्रारम्भ इमी प्रथम तीर्थकर ने किया। इमो कारण इस कालखड को 'कृतयुग' नाम से पुकारा जाता है। विद्यावारिधि वै० चपतराय जी का कथन है-"जैन कालगणना की दृष्टि ने ऋषभ प्राचीनो मे प्राचीनतम है। किमी भी धर्म को व्यवस्थित रूप प्राप्त होने से भी पहले के काल में वे हो गये।" न्यायमूर्ति रागणेकर ने ऋषभदेव को प्राचीनता के सम्बन्ध में कहा है-"ब्राह्मणवर्म-वैदिकमत-अस्तित्व मे आने से पूर्व जैनधर्म प्रचलित था, यह आजकल के ऐतिह्य सशोधन से निश्चित होता है। जैन प्रथम हिन्दुधर्मी थे। बाद में उन्होने उस धर्म को ग्रहण किया, यह कथन भ्रमपूर्ण है।" मथुरा के पहाडो मे ऋषभमूर्ति, गुजरात, काठियावाड, मारवाड आदि प्रान्तो के मन्दिरो मे प्राचीन काल को मूर्तियां और उन पर खुदे प्राचीन लेखो से उमी प्रकार जन-अर्जन वाड़मय के लेखन में भी इस धर्म की प्राचीनता निष्पक्ष सत्यभक्त सशोधको को जॅची है। सैकडो विश्वसनीय प्रमाणो मे ऋषभदेव ही जैनधर्म के इस काल के प्रथम सस्थापक थे, ऐसा दिखाई देता है। नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और अन्तिम चौवीसवे महावीर आदि ने आदितीर्थकर ऋषभप्रणीत जिनधर्म का ही प्रसार किया। २-जैनदर्शन की विशेषताएँ विश्व के विभिन्न राष्ट्रो और समाजो को सस्कृतियां ज्ञानोपासना तथा ज्ञानसवर्धन की कसौटी पर ही परखी जाती है, यह निर्विवाद सत्य है । उस कसौटी पर कसने से वुद्धि-प्रधान जैनदर्शन हमें वैज्ञानिक जान पडता है । पूर्व मूरियो ने आत्मानात्मविचार-जीव-अजीव सृष्टि का ऐसा गहरा तर्कपूर्ण विवेचन किया है कि आज के वैज्ञानिक मशोधन की कसौटी पर भी वह पूर्णत खरा उतरता है। परमात्मपदप्राप्ति ही मानव का उच्चतम अन्तिम साध्य है । यदि आत्मा बहिरात्मावृत्ति छोड कर अन्तरात्मा का ज्ञान प्राप्त करें तो इस साध्य को उपलब्ध कर सकता है । डॉ० प० ल० वैद्य के शब्दो मे-"हेय, उपाय और उपेय इन तीन प्रकारो से प्रात्मस्वरूप का विवेचन पूज्यपाद के समाधिशतक में जितनी सुन्दरता से हुआ है उतना गायद ही अन्यत्र मिल सके। डॉ० एस० के० दे तथा प० नाथूराम
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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