SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मराठी में जैन-साहित्य और साहित्यिक ५३१ सहा जी प्रेमी ने भी यही अभिप्राय भिन्न शब्दो में व्यक्त किया है। प्रबुद्धात्मा ही मर्वनता प्राप्त कर सकती है। सर्वज्ञता में अधिक श्रेष्ठ, मगलदायक और प्रानन्द पद पर दूसरी कौन सी वस्तु है ? इमी मर्वनता के कारण तुष्टि, पुष्टि तया गान्ति का लाभ सव कर सकते है। इस पृथ्वी पर दैवी सम्पदा का साम्राज्य अवतरित होकर, उच्चतम ज्ञानानन्द तया कनाविलास में निमग्न होकर अली किक अनिर्वचनीय मात्त्विक आनन्द में मव महभागी हो सकेंगे। इस कारण जान की महत्ता का जैनदानिको ने मुक्तकठ मे वर्णन किया है। जो पात्मतत्त्व 'वोधरूपम्' है वही आनन्ददायक है, वही जानमय और मोक्षदायक भी है। ऐसे म्वाभाविक नानम्वभाव मे तन्मय होना ही परमात्मपद है। अमितगनि प्राचार्य कहते है-"जान विना नास्त्यहितानिवृत्ति स्तत प्रवृत्तिर्न हिते जनानाम्।" ज्ञान की महत्ता का वर्णन करने वाले जानार्णव जैसे मैकडो ग्रन्य जैन मुनियो ने लिखे है। आत्मा को अमरता भी विवंकवादीके दृष्टिकोण मे न्यायशास्त्र के अनुमार जैनाचार्यों ने अपने मिद्धान्त तथा पौगणिक ग्रन्यो में मप्रमाण मिद्ध की है। सम्पूर्ण प्राणीमात्र का कल्याण करना ही जैनधर्म है और उमीके लिए तीर्थकरी ने तथा आचार्यों ने अपना जीवन बिताया। उन्होने आत्मतत्त्व पहचान कर उममे तन्मय होने का नया श्रेय-अभ्युदय के मार्ग मे मोक्ष की ओर जाने का उपदेश दिया। जैनधर्म को मवमे वडी विगेपता है चारो पुरुषार्थो की मिद्वि। इस सिद्धि का उपाय मनुष्यो के हाथ में है। अपनी दुष्कृति का, क्रियाशून्यता का फल म्बय हमे ही भोगना चाहिए। उमका दोप भी पूर्णतय हमें ही है । भगवन्त पर या भाग्य पर दोप मढना जैनवर्म मम्मत नहीं। पूजा की मिथ्या टीमटाम इस धर्म ने नहीं रची। नदी, वरगद, तुलमी, नाग आदि की पूजा करना धर्म का परिहार करना है। यह सब मिथ्यापूजा है-यही इस उदारधर्म ने प्रतिपादित किया। मानताएँ लेना म्वार्यपूर्ण तया निर्वाध व्यक्तियो का मार्ग है, यही इस धर्म ने सिद्ध किया। भाग्य को कोसने की वृत्ति दुर्बलता को द्योतक है। इममे पात्मवल तो नही वढना, उलटे पालस्यादि दुर्गुणो को महत्त्व मिलता है-यही उपदेश इम धर्म ने किया है। इस धर्म मे सृष्टिकर्तृत्व ईश्वर को नहीं दिया गया। इसी कारण ईश्वर को दगा अनुकम्पनीय और हास्यास्पद नहीं हुई और उसकी सर्वशक्तिमत्ता अबाधित रही। जैनधर्म का प्रमुख सिद्धान्न है-अनेकात । प्रो० मन जैकोबी के अनुसार-"The Jainas believe the ar to be the key to the solution of all metaphysical questions” अर्यात-"जनो का विश्वास है कि म्यादाद ममम्त आध्यात्मिक प्रग्नी के समाधान की कुजी है।" महान वनानिक आइन्स्टाइन का मापेक्षतावाद इसी म्याद्वाद की भांति है। डॉ० भाडारकर जैसे विख्यात पडित ने आक्षेप किया है कि शकराचार्य ने म्याद्वाद पूरी तरह न समझ कर उसकी आलोचना की। “Ahimsa is the fulfilment of life Killing the least is living the best" अर्थात्-"अहिंमा जीवन की परिपूर्णता है । जो जितनी कम हिमा करेगा, उसका जीवन उतना ही उत्कृष्ट होगा।" इन दो सूत्रो मे अहिंमा की श्रेष्ठना मिद्ध होती है। अहिंसा मे अमाप धैर्य उत्पन्न हो सकता है। जिसमें त्याग, धैर्य, पगक्रम, मयम ये गुण हो, वही सच्चा महावीर है। जैनमस्कृति ने ऐमे वीर और वीरागनाएँ उत्पन्न की हैं। सत्यक्षमा प्रादि दश वर्मों का विवेचन मद्भावनापोपक है। वह मनुप्यता निर्मित करने वाला है। कर्ममिद्धात सम्बन्धी जो विवेचन जैनागमो में मिलता है, वह किसी भी सत्यभक्त को जॅचेगा ही। मम्पत्ति के असमान वॅटवारे के विरोध म परिग्रह प्रमाण का मन्त्र बता कर एक अोर टॉल्स्टॉयमत और दूसरी ओर ममाजमत्तावाद के सारतत्त्वो को इस वर्म में कुछ अगो में मान्यता दी गई है। . ३-प्राचीन जैन-साहित्य डॉ० ५० ल० वैद्य के कथनानुसार-"प्राचीन जैन साहित्य गुणसभार तथा मख्या समृद्धि की दृष्टि मे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जैनधर्म-सस्कृति तथा जागतिक ज्ञानवृद्धि के हेतु से इस प्राचीन साहित्य का प्रकाशन कर उसे मवके
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy